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________________ माचारदर्शन के तात्त्विक आधार १८७ नहीं होता और यदि असत् को कारण माना जाये तो उसका कार्य भी असत् होगा और ऐसी स्थिति में बन्धन भी असत् होगा । अद्वैत के प्रतिपादक आचार्य शंकर की दृष्टि में भी बन्धन का कारण माया असत् नहीं है। यदि उसे अनिर्वचनीय माना जाता है तो उसकी सत्ता माननी ही पड़ेगी, अनिर्वचनीय माया अभावात्मक नहीं हो सकती । यदि माया भावात्मक है, तो एक ब्रह्म के समक्ष एक दूसरी सत्ता खड़ी हो जायेगी और अद्वैतवाद खण्डित हो जायेगा । यदि उसे स्वतन्त्र सत्ता न मानकर ब्रह्म के आश्रित सत्ता कहा जाए तो आश्रयानुपपत्ति का आक्षेप लागू होगा। चाहे शंकर के अद्वैतवाद, नागार्जुन के शून्यवाद और आर्य असंग के विज्ञानवाद के तर्क तात्त्विक दृष्टि से सबल हों, लेकिन नैतिकता की सक्षम व्याख्या प्रस्तुत करने में तो वे निर्बल पड़ जाते हैं। अनेक पाश्चात्य चिन्तकों ने भी इस एकत्ववादी सत् की धारणा में आचारदर्शन की सम्भावना के प्रति शंका प्रकट की है। मेक्समूलर ने शाङ्करवेदान्त को एक कठोर एकत्ववाद को संज्ञा देकर उसमें आचार के मूल्य का अधिक स्थान स्वीकार नहीं किया । डा० अर्कहार्ट का 'सर्वेश्वरवाद और जीवन का मूल्य' सर्वेश्वरवादी ( एकत्ववादी) विचारणा में आचारदर्शन की असम्भावना को सिद्ध करने वाला महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । वे लिखते हैं कि यह ब्रह्म ( सत् ) निर्गुण और भेदातीत है, अतः शुभाशुभ भेद से भी परे है । शुभाशुभ के भेद का निराकरण आचारशास्त्र के आधार का ही उन्मूलन कर देता है । वेदान्त में व्यक्तित्व को भी मिथ्या माना गया है। शुभाशुभ के भेद का निराकरण नैतिक निर्णय को असम्भव बना देता है और उसके साथ ही व्यक्ति को वास्तविकता का निषेध नैतिक निर्णय को अनावश्यक भी बना देता है । कठोर अद्वैतवादी विचारधारा की नैतिक अक्षमता का चित्रण करते हुए आप्तमीमांसा में आचार्य समन्तभद्र कहते हैं कि एकान्त अद्वैतवाद की धारणा में शुभाशुभ कर्मों का भेद, सुख-दुःखादि का फलभेद, स्वर्ग-नरक आदि का लोकभेद नहीं रहता है और न सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान तथा बन्धन और मोक्ष का ही भेद रहता है । अतः ऐसा सिद्धान्त नैतिक दृष्टि से सक्षम नहीं हो सकता। नैतिकता के लिए तो द्वैत एवं अनेकता आवश्यक है । डा० नथमल टाँटिया लिखते हैं कि एकान्त अद्वैतवादी धारणा को स्वीकार करने का अर्थ होगा-समाज, वातावरण, परलोक, तथा नैतिक और धार्मिक जीवन एवं तत्सम्बन्धी संस्थाओं की पूर्ण समाप्ति-लेकिन ऐसा दर्शन मानव-जाति के लिए उपादेय नहीं कहा जा सकता। यह एक निश्चित तथ्य है कि कठोर एकतत्त्ववादी सत् की व्याख्या, जो परिवर्तन को मिथ्या स्वीकार करती है, आचारदर्शन का तात्त्विक आधार बनने में समर्थ नहीं है । १.विवेकचूड़ामणि, माया निरूपण. २. शंकराचार्य का आचारदर्शन, पृ० १६-१७. ३. आप्तमीमांसा, २५. ४. स्टडीज इन जैन फिलासफी, पृ० १७८. १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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