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________________ १८६ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन (अ) सत् का स्वरूप अद्वय, अविकार्य ( अपरिणामी ) और आध्यात्मिक है । ( शंकर ) (ब) सत् का स्वरूप अनेक, परिवर्तनशील ( अनित्य) और भौतिक है। (अजितकेशकम्बल) प्राचीन जैन और बौद्ध आगमों में हमें शाश्वतवाद और उच्छेदवाद तथा अक्रियावाद और क्रियावाद के नाम से सत्-सम्बन्धी दो परस्पर विरोधी दृष्टिकोणों का उल्लेख मिलता है जो बहुत कुछ क्रमशः प्रथम और दूसरे वर्ग के निकट आते हैं। अब हमें यह देखना है कि सत्-सम्बन्धी उपर्युक्त दोनों परस्पर विरोधी दृष्टिकोण नैतिक जीवन की व्याख्या करने में कहाँ तक सफल अथवा असफल रहते हैं। ६२. (अ) सत् के अद्वय, अविकार्य एवं आध्यात्मिक स्वरूप को नैतिक समीक्षा ___ सत्-सम्बन्धी एकतत्त्ववादी एकान्त धारणा में आचारदर्शन का क्या स्थान हो सकता है, यह चिन्त्य है। यदि सत् ( ब्रह्म) भेदातीत है तो न तो उसमें वैयक्तिक साधक की सत्ता बनती है और न शुभाशुभ के लिए कोई स्थान हो सकता है। आचारदर्शन के बन्धन और मुक्ति के प्रत्यय भी मात्र काल्पनिक ही रह जाते हैं। यदि ब्रह्म से भिन्न कोई सत्ता है ही नहीं, तो फिर न तो कोई बन्धन में आनेवाला ही शेष रहता है, न मुक्त होनेवाला ही। यदि जीवात्मा अज्ञान से बन्धन में आता है और ज्ञानात्मक साधना द्वारा मुक्त होता है, तो जीवात्मा भी तो ब्रह्म से अभिन्न है । इसका अर्थ तो यह होगा कि ब्रह्म ही बन्धन में आता है, जो स्वयं में ही एक उपहासास्पद धारणा है । यदि यह कहा जाए कि जीव विवर्त है तो फिर जीव के सम्बन्ध में होने वाले बन्धन और मुक्ति भी विवर्त होंगे और बन्धन और मुक्ति के विवर्त होने पर सारी नैतिकता भी विवर्त होगी । ऐसी विवर्तमूलक नैतिकता का क्या मूल्य रहेगा, यह अद्वैतवादियों के लिए विचारणीय ही है। दूसरे, यदि इस धारणा में विकार, परिवर्तन आदि का भी कोई स्थान नहीं है तो नैतिक पतन और नैतिक विकास या बन्धन और मुक्ति की धारणाएं भी टिक नहीं पाती । नैतिक पतन और विकास परिवर्तन ही हैं, जिनका मूल्यांकन नैतिक आदर्श के सन्दर्भ में किया जाता है । तीसरे, यदि परमसत्ता आध्यात्मिक है तो बन्धन कैसे होता है ? किसके कारण होता है ? यह बताना कठिन होता है। दूसरे, तत्त्व की सत्ता माने बिना बन्धन की समीचीन व्याख्या नहीं हो सकती। स्वयं अद्वैतवाद को भी अनेकता और बन्धन के कारण के लिए माया की धारणा को स्वीकार करना पड़ा। इतना ही नहीं, उसे अनादि भी मानना पड़ा। परमतत्त्व के समानान्तर अनादि माया की धारणा कठोर एकत्ववादी निष्ठा के प्रतिकूल है । बन्धन का कारण माया असत् तो नहीं कही जा सकती, क्योंकि असत् कारण वस्तुतः कारण ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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