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________________ आचारदर्शन के तात्त्विक आधार १८५ सम्बन्धी इस विचार प्रणाली का प्रतिनिधित्व शंकराचार्य करते हैं । डा० चन्द्रधर शर्मा के मतानुसार विज्ञानवादी और शून्यवादी बौद्ध विचारणाएँ भी इसी वर्ग में आ सकती हैं । २. दूसरे वर्ग में सत् का परिवर्तनशीलता का सिद्धान्त आता है । इसके अनुसार सत् का लक्षण अनित्यता, क्षणिकता एवं परिवर्तनशीलता है । इस विचारधारा का अनुसरण प्रारम्भिक बौद्ध दर्शन करता है । प्राचीन जैन और बौद्ध आगमों में वर्णित उच्छेदवाद को भी इसी वर्ग में रखा जा सकता है । ३. तीसरे वर्ग में सत् का वह सिद्धान्त आता है जिसके अनुसार सत् में भेद और अभेद दोनों के होते हुए भी अभेद प्रधान है और भेद गौण है । भेद अभेद के अधीन है । इस विचारधारा का प्रतिनिधित्व विशिष्टाद्वैतवाद के प्रवर्तक रामानुज करते हैं । डा० पद्मराजे के अनुसार इनके अतिरिक्त सांख्य दर्शन, निम्बार्क, भास्कराचार्य, यादव प्रकाश तथा पाश्चात्य विचारक हेगल भी इसका समर्थन करते हैं । गीता को भी इसी वर्ग में रखा जा सकता है । यद्यपि आचार्य शंकर ने उसे अद्वैतवादी और आचार्य मध्व ने उसे द्वैतवादी सिद्ध करने का प्रयास किया है, फिर भी हमारी विनम्र सम्मति में उनकी व्याख्याएँ गीता की मूल आत्मा के अधिक निकट नहीं कही जा सकतीं । गीता के सत्-सम्बन्धी दृष्टिकोण की मूलात्मा सांख्य दर्शन और रामानुज के अधिक निकट है । ४. चौथे वर्ग का सिद्धान्त भी सत् में भेद और अभेद दोनों को स्वीकार करता है, लेकिन तीसरे वर्ग से इसका अन्तर इस आधार पर है कि यह अभेद को गौण और भेद को प्रमुख मानता है । मध्व इसी मत का प्रतिनिधित्व करते हैं । डा० पद्मराजे ने वैशेषिक दर्शन को भी इसी वर्ग का माना है । ५. पाँचवें वर्ग के सिद्धान्त में सत् को भेद और अभेदमय मानते हुए किसी एक को प्रमुख नहीं माना गया, वरन् दोनों को परस्परापेक्षी और सहयोगी भेद और अभेद दोनों सापेक्ष हैं और एक दूसरे पर निर्भर होकर ही रखते हैं, स्वतन्त्र होकर नहीं । जैन दर्शन इसी वर्ग में आता है । माना गया है । अपना अस्तित्व यदि हम विभिन्न भारतीय दर्शनों या डा० पद्मराजे के उपर्युक्त वर्गीकरण के आधार पर सत्-सम्बन्धी सिद्धान्तों की नैतिक समीक्षा करने का प्रयत्न करेंगे तो काफी विस्तार में जाना होगा तथा कुछ स्थितियों में उनकी एक दूसरे से निकटता के कारण अनावश्यक पुनरावृत्तियों से बचना सम्भव नहीं हो सकेगा । दूसरे, डा० पद्मराजे के इस वर्गीकरण में बौद्ध दर्शन को अद्वैत वेदान्त के ठीक विरोध दिखाया गया हैं, यह भी समीचीन नहीं है । अतः हम समीक्षा की सुविधा की दृष्टि से पूर्वचर्चित तीन आधारों पर सत्-सम्बन्धी दो व्याघाती दृष्टिकोण प्रस्तुत करेंगे और उनकी नैतिक दृष्टि से समीक्षा करते हुए इस सम्बन्ध में जैन दर्शन, बौद्ध दर्शन और गीता की स्थिति को स्पष्ट करने का प्रयत्न करेंगे । में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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