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जैन, बौद्ध तथा गोता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
दार्शनिक जगत् के सभी तात्त्विक सिद्धान्त उपर्युक्त दृष्टिकोणों के विभिन्न संयोगों का परिणाम हैं । संक्षेप में प्रमुख भारतीय दर्शनों के सत्-सम्बन्धी दृष्टिकोण निम्नानुसार हैं
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१. चार्वाक् दर्शन सत् को भौतिक, परिणामी एवं अनेक मानता है ।
२. प्रारम्भिक बौद्ध दर्शन के अनुसार सत् परिवर्तनशील ( अनित्य ), अनेक और भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों प्रकार का है ।
३. बौद्ध दर्शन के विज्ञानवाद सम्प्रदाय के अनुसार सत् आध्यात्मिक, अद्वय एवं परिवर्तनशील है ।
४. बौद्धदर्शन के माध्यमिक ( शून्यवाद ) सम्प्रदाय के अनुसार परमार्थ न परिणामी है और न अपरिणामी । वह एक भी नहीं है और नाना भी नहीं है, उसे निःस्वभाव कहा गया है ।
५. जैन दर्शन में सत् को पर्यायदृष्टि से परिवर्तनशील, द्रव्यदृष्टि से ध्रौव्य ( अव्यय ) लक्षणयुक्त, भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों प्रकार का, तथा अनेक माना गया है ।
६. सांख्य दर्शन सत् को भौतिक ( प्रकृति ) एवं आध्यात्मिक ( पुरुष ) दोनों प्रकार का मानता है । साथ ही वह प्रकृति के सम्बन्ध में परिणामवाद को और पुरुष के सम्बन्ध में अपरिणामवाद ( कूटस्थता के प्रत्यय ) को स्वीकार करता है । इसी प्रकार वह प्रकृति के सन्दर्भ में अभेद में भेद की कल्पना करता है, जबकि पुरुष के सम्बन्ध में वास्तविक अनेकता को स्वीकार करता है |
७. न्याय-वैशेषिक दर्शन में सत् की अनेकता पर बल दिया गया है, यद्यपि वह अनेकता में अनुस्यूत एकता को भी स्वीकार करता है । उसमें सत् आध्यात्मिक एवं भौतिक दोनों प्रकार का है ।
८. शांकर वेदान्त के अनुसार सत् या परमार्थ (ब्रह्म) आध्यात्मिक, अद्वय एवं अविकार्य है तथा जीव और जगत् को सत्ताएँ मात्र विवर्त हैं ।
९. विशिष्टाद्वैतवाद ( रामानुज ) के अनुसार सत् ( ईश्वर ) एक ऐसी सत्ता है जिसमें भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों सत्ताएँ समाविष्ट हैं । वे परमसत्ता के परिणामीपन को स्वीकार करते हैं । उनका दर्शन ब्रह्म परिणामवाद है । साथ ही वे अभेद में भेद की सम्भावना को स्वीकार करते हैं ।
स्वर्गीय डा० पद्मराजे ने सत्-सम्बन्धी भारतीय दृष्टिकोणों को पाँच वर्गों में विभाजित किया है ।"
१. प्रथम वर्ग में अद्वय, अव्यय, अविकार्य
सत् का अद्वय सिद्धान्त आता है, जो यह मानता है कि सत् एवं कूटस्थ है । परिवर्तन या अनेकता मात्र विवर्त है। सत्१. जैन थ्योरीज आफ रोयलिटी ऐण्ड नॉलेज, पृ० २५-२६.
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