________________
१८२
जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन आचारदर्शन के आधार पर तत्त्वमीमांसा को फलित करते हैं, वहाँ गीता तत्त्वमीमांसा के आधार पर आचार के नियमों को प्रतिपादित करती है। यहाँ गीता जैन और बौद्ध परम्परा से भिन्न है । यहाँ उसका दृष्टिकोण पाश्चात्य विचारक स्पिनोजा के अधिक निकट है । गीता में प्रस्तुत ज्ञानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग, सभी पर उसकी तत्वमीमांसा का स्पष्ट प्रभाव है । वे उसके तत्त्वदर्शन या ईश्वर ( परमसत्ता ) के स्वरूप के आधार पर निकाले गये नैतिक निष्कर्ष हैं। श्री संगमलाल पाण्डे स्पष्ट रूप से यह स्वीकार करते हैं कि गीता का नीतिशास्त्र तत्त्वज्ञान या तत्त्वदर्शन पर आधारित है। इतना ही नहीं, इस सन्दर्भ में आलोचकों को उत्तर देते हुए वे अधिक बल के साथ यह लिखते हैं कि हम गीता की यह एक बड़ी देन मानते हैं कि इसके अनुसार नीतिशास्त्र को तत्त्वज्ञानमूलक होना चाहिए।
इस प्रकार जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शन यह निर्विवाद रूप से स्वीकार करते हैं कि तत्त्वदर्शन और आचारदर्शन में अपरिहार्य सम्बन्ध है। फिर भी जहाँ जैन और बौद्ध परम्पराएँ तात्त्विक समस्याओं को नैतिक दृष्टि से हल करने का प्रयत्न करती हैं, वहाँ गीता नैतिक समस्याओं को तात्त्विक बुद्धि से हल करने का प्रयत्न करती है । जहाँ जैन और बौद्ध परम्पराओं में आचारदर्शन को दृष्टि में रखकर परमार्थ या तत्त्व के स्वरूप की विवेचना की गयी है और तत्त्वदर्शन का निर्माण किया गया है, वहाँ गीता में तत्त्वदर्शन के आधार पर नैतिक जीवन के नियमों को प्रतिफलित किया गया है । जैन व बौद्ध दर्शनों में नैतिक मान्यताएँ आधार वाक्य है और तत्त्वदर्शन निष्कर्ष वाक्य है, जबकि गीता में तत्त्व का स्वरूप आधार वाक्य है और नैतिक नियम निष्कर्ष वाक्य है । सत् के स्वरूप का आचारवर्शन पर प्रभाव ___आचारदर्शन के परमसाध्य या नैतिक आदर्श का परमार्थ या सत् ( Reality ) के स्वरूप से निकट का सम्बन्ध है। यही नहीं, किसी दर्शन में नैतिकता का क्या स्थान होगा यह बात भी बहुत कुछ उसके सत् के स्वरूप के विवेचन पर निर्भर करती है। इसी प्रकार आचारदर्शन में ज्ञानमार्ग या कर्ममार्ग में से किसे प्रमुखता दी जावे, यह भी उसकी सत्-सम्बन्धी मान्यता पर निर्भर है। जो दर्शन सत् को अविकारी, अपरि‘णामी एवं कूटस्थ मानते हैं, वे अपनी नैतिक साधना में ज्ञान को ही मुक्ति का साधन मानते हैं, जबकि जो दर्शन सत् को परिणामी या परिवर्तनशील समझते हैं वे मुक्ति के साधन के रूप में आचरण या कर्म को स्वीकार करते हैं। इस प्रकार परमार्थ या तत्त्व के स्वरूप की व्याख्या से आचारदर्शन प्रभावित होता है । सत् के स्वरूप को विभिन्नता के कारण
जब मानवीय जिज्ञासुवृत्ति ने इन्द्रियज्ञान में प्रतीत होनेवाले इस जगत् के अन्तिम १. नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण, पृ० २८७. २. वही, पृ० २६३.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org