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आचारदर्शन के तात्त्विक आधार
कि मैं इस शल्य को तब तक हाथ नहीं लगाने दूंगा, जब तक कि मुझे इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिलता कि यह तीर किसने मारा? वह मारने वाला ब्राह्मण था या क्षत्रिय ? वैश्य था या शूद्र ? काला था या गोरा ? उसका धनुष किस प्रकार का था ? धनुष की रस्सी किस पदार्थ की बनी हुई थी ? आदि, तो हे मालुक्यपुत्त, उस परिस्थिति में वह मनुष्य इन बातों को जाने बिना ही मर जायेगा। इसी प्रकार जो कोई इस बात पर अड़ा रहेगा कि जगत् शाश्वत है या अशाश्वत, आदि बातों का स्पष्टीकरण हुए बिना मैं ब्रह्मचर्य का आचरण नहीं करूंगा, तो वह इन बातों को जाने बिना ही मर जायेगा।
हे मालुक्यपुत्त, जगत् शाश्वत है या अशाश्वत, ऐसा विश्वास हो तो भी उससे धार्मिक आचरण में सहायता मिलेगी, ऐसी बात नहीं है । यदि ऐसा विश्वास हो कि जगत् शाश्वत है, तो भी जरा, मरण, शोक, परिदेव आदि से मुक्ति नहीं होती। इसी प्रकार जगत् शाश्वत नहीं है, शरीर और आत्मा एक है, या शरीर और आत्मा भिन्न है, मरण के पश्चात् तथागत को पुनर्जन्म प्राप्त होता है या नहीं, आदि बातों पर इम विश्वास रखें या न रखें; जन्म, जरा, मरण, परिदेव तो है ही। इसलिए मालुंक्यपुत्त, मैं इन बातों की चर्चा में नहीं पड़ा क्योंकि उस वाद-विवाद से ब्रह्मचर्य में किसी भी प्रकार की स्थिरता नहीं आ सकती। उस वाद से वैराग्य उत्पन्न नहीं होगा, पाप का निरोध नहीं होगा, और शान्ति, प्रज्ञा, सम्बोध एवं निर्वाण की प्राप्ति नहीं होगी।" इस प्रकार बुद्ध ऐसी तत्त्वमीमांसा को निरर्थक समझते थे जिसका व्यावहारिक जीवन की समस्याओं से सीधा सम्बन्ध नहीं था और जिसमें किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचना सम्भव नहीं था। ऐसे प्रश्नों को उन्होंने 'अव्याकृत' कहकर छोड़ दिया । बुद्ध न ऐसे तत्त्वविचारकों को जो जगत् शाश्वत है या अशाश्वत है, आत्मा अमर है या नश्वर है, आदि प्रश्नों के सम्बन्ध में वाद-विवाद करते हुए अपना समय व्यर्थ गँवाते हैं, निर्वाण का अधिकारी नहीं माना। उनकी दृष्टि में ऐसे लोग मार के बन्धन में फंस जाते हैं । वे केवल उन्हीं तात्विक प्रश्नों की चर्चा करना उचित समझते थे, जिनका नतिक जीवन से सीधा सम्बन्ध हो और इस रूप में उन्होंने केवल चार आर्यसत्यों या चार परमार्थों की चर्चा की। गीता का दृष्टिकोण
___ गीता में भी तत्त्वमीमांसा और आचारदर्शन में अनिवार्य सम्बन्ध स्वीकार किया गया है । अर्जुन का मोह दूर करने और उसे कर्म में प्रवृत्त करने के लिए गीता में दिये गये अधिकांश तर्क तात्त्विक हैं। प्रथम तत्त्वमीमांसा और फिर उससे आचरण की दिशा-निर्धारण के प्रयत्न गीता में अनेक स्थलों पर देखे जा सकते हैं। गीता का आचारदर्शन उसके तत्त्वदर्शन पर खड़ा है। इस प्रकार जहाँ जैन और बौद्ध दर्शन १. मज्झिमनिकाय, चूल मालंक्यपुत्त सुत्त, ६३, पृ० २५४-२५५. २. वही, निवापसुत्त, २५, पृ० १०१. ३. विशेष द्रष्टव्य-गीता, अध्याय २, ४, ११, १३ और १८.
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