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________________ १८० जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन हमारी मान्यता में वहाँ पर आचारदर्शन ही प्राथमिक सिद्ध होता है । वह रशडाल की मान्यता की समर्थक है । जैन दर्शन में आचारदर्शन के आधार पर तत्त्वयोजना की गयी, न कि तत्त्वयोजना के आधार पर उन्होंने आचारदर्शन का निर्माण किया । डा० राधाकृष्णन आदि भी जैन परम्परा को दार्शनिक परम्परा की अपेक्षा आचारमार्गीय परम्परा ही कहना अधिक पसन्द करते हैं । उसमें नैतिक दर्शन प्राथमिक है । डा० राधाकृष्णन लिखते हैं कि आध्यात्म-विद्या के विषय में जैनमत उन सब सिद्धान्तों के विरोध में है, जो नैतिक उत्तरदायित्व पर बल नहीं देते । प्रो० हरियन्ना भी इसी दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं । वे लिखते हैं, "सच्ची बात यह है कि जैन धर्म का मुख्य लक्ष्य आत्मा को पूर्ण बनाना है, न कि विश्व की व्याख्या करना ।"२ जैन दर्शन के सम्बन्ध में श्री जे० एल० जैनी का कथन है कि उसका मूलमन्त्र है ज्ञान के लिए जीवन नहीं, बल्कि जीवन के लिए ज्ञान है । 3 जैन तत्त्वमीमांसा में प्रमुख रूप से यही ध्यान रखा गया है कि वह उसके नैतिक दर्शन को परिपुष्ट करे । जैन दर्शन ने अपनी तत्त्वमोमांसा में नैतिक पक्ष को ही उभारा है । सर्वदर्शनसंग्रह में इसे बड़े ही सुन्दर रूप में प्रस्तुत किया गया है - आस्रव संसार ( दुःख ) का हेतु है और संवर मुक्ति का हेतु है । यही मात्र आर्हत् दृष्टि का सार है, शेष सभी इसी का विस्तार मात्र है । ४ बौद्ध दृष्टिकोण बुद्ध न केवल तत्त्वमीमांसा और आचारदर्शन में अपरिहार्य सम्बन्ध स्वीकार करते हैं, वरन् ऐसी तत्त्वमीमांसा को, जो नैतिक जीवन की समस्याओं से सम्बन्धित नहीं है, अनावश्यक भी मानते हैं । बुद्ध की दृष्टि में ऐसा समस्त तत्त्व-विवाद जो ब्रह्मचर्यवास ( नैतिक जीवन ) के लिए नहीं है, जो नैतिक जीवन की समस्याओं का समाधान नहीं देता, वरन् उन्हें उलझा देता है, कोई मूल्य नहीं रखता । प्रो० व्हाइटहेड का बौद्ध धर्म के बारे में यह कहना ध्यान देने योग्य है कि वह इतिहास में अनुप्रयुक्त तत्त्वमीमांसा का सबसे महान् दृष्टान्त है ।" प्रो० हरियन्ना भी लिखते हैं कि बुद्ध के उपदेश में हमें शुद्ध तत्त्वमीमांसा का कोई सिद्धान्त नहीं मिलेगा । वह सैद्धान्तिक तत्त्वमीमांसा के विरुद्ध थे । बुद्ध के द्वारा तत्त्वमीमांसा की निरर्थकता के सम्बन्ध में मालुंक्यपुत्त को दिया गया उपदेश प्रसिद्ध है । वे कहते हैं, "हे मालुंक्यपुत्त, यदि कोई मनुष्य अपने शरीर में बाण का विषैला शल्य घुस जाने से छटपटाता हो तो आप्तमित्र शल्य क्रिया करने वाले वैद्य को बुला लायेंगे । परन्तु यदि वह रोगी उससे कहे १. भारतीय दर्शन, भाग १, पृ० २=६. २. भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० १७४. ३. आउटलाइन्स आफ जैनीज्म, पृ० ११२. ४. सर्वदर्शनसंग्रह, पृ० ८०. ५. रिलीजन इन दी मेकिंग, पृ० ३६. ६. भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० १३६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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