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________________ आचारदर्शन के तात्त्विक आधार १७९ में यह आचारदर्शन सम्बन्धी चिन्तन सामान्य दार्शनिक चिन्तन के अन्तर्गत् ही है, उससे पृथक नहीं।' जैन दृष्टिकोण __ जैन विचारकों ने जीवन के इन तीनों पक्षों को अलग-अलग देखा तो सही लेकिन उन्हें अलग-अलग किया नहीं। यही कारण है कि जैन दर्शन ने तत्त्वदर्शन, धर्मदर्शन और आचारदर्शन पर विचार तो किया, लेकिन इन्हें एक दूसरे से पृथक् नहीं रखा। सभी एक दूसरे में इतने घुले-मिले हैं कि इन्हें एक दूसरे से पृथक् करना सम्भव ही नहीं है। न तो जैन आचारमीमांसा को तत्त्वमीमांसा और धर्ममीमांसा से पृथक् किया जा सकता है और न उनसे अलग कर उसे समझा ही जा सकता है । जैन दर्शन का मुद्रालेख “सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्ष मार्गः" मानवीय चेतना के अनुभूत्यात्मक, ज्ञानात्मक और क्रियात्मक ( संकल्पात्मक ) तीनों पक्षों को समन्वित रूप में प्रस्तुत करता है । यहाँ दर्शन, ज्ञान और चारित्र क्रमशः धर्म, तत्त्वज्ञान और आचरण के प्रतीक है। इस प्रकार जहाँ मैकेंजी आदि पाश्चात्य विचारक नैतिकता में आचरणात्मक पक्ष को ही सम्मिलित करते हैं, वहाँ जैन विचारक नैतिकता में जीवन के तीनों पक्ष-अनुभूति, ज्ञान और क्रिया को सम्मिलित करते हैं। यही कारण है कि जैन आचारदर्शन का अध्ययन करते समय उसकी तत्त्वमीमांसा और धर्ममीमांसा को छोड़ा नहीं जा सकता। क्योंकि उसकी तात्त्विक मान्यता 'अनन्तधर्मात्मक वस्तु' के आधार पर ही अनेकान्तवाद और नयवाद के सिद्धान्त खड़े हैं और अनेकान्तवाद को ही आचारदर्शन के क्षेत्र में वैचारिक अहिंसा कहा गया है । दूसरी ओर, अहिंसा ने जब व्यवहार के क्षेत्र को छोड़ विचार के क्षेत्र में प्रवेश किया तो वह अनेकान्त बन गयी। अनेकान्तवादी दृष्टिकोण से नैतिक सापेक्षता का प्रश्न जुड़ा हुआ है। इस प्रकार तत्त्वदर्शन और आचारदर्शन एक दूसरे से अलग नहीं रह जाते । जहाँ तक धर्मदर्शन और आचारदर्शन के सम्बन्ध का प्रश्न है, जैन परम्परा में वे पूरी तरह एक दूसरे से मिले हुए हैं। धर्म ही नीति है और नीति ही धर्म है । दोनों एक दूसरे के पर्यायवाची बन गये हैं । यदि जैन परम्परा में सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र समवेत रूप में मोक्ष-मार्ग है तो फिर तत्त्वदर्शन, धर्मदर्शन और आचारदर्शन एक दूसरे से पूर्णतः पृथक होकर नहीं रह सकते। पाश्चात्य परम्परा में न केवल तत्त्वदर्शन और आचारदर्शन के सम्बन्ध पर विचार किया गया, वरन् उनकी पूर्वापरता का भी विचार किया गया है। स्पिनोजा प्रभृति कुछ विचारक तत्त्वदर्शन को प्राथमिक मानते हैं और उससे आचारदर्शन को फलित करते हैं। दूसरी ओर रशडाल प्रभृति कुछ विचारक आचारदर्शन को प्राथमिक मानते हैं और उसके आधार पर तत्त्वदर्शन की योजना करते हैं। जहाँ तक जैन विचारणा में तत्त्वज्ञान और आचारदर्शन में पूर्वापरता पर विचार करने का प्रश्न है, १. शङ्कराचार्य का आचारदर्शन, पृ० ८४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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