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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
वस्तुतः जब तक हमें सत् के स्वरूप अथवा जीवन के आदर्श का बोध नहीं होता तब तक आचरण का मूल्यांकन भी सम्भव नहीं होता, क्योंकि यह मूल्यांकन तो व्यवहार या संकल्प के नैतिक आदर्श के सन्दर्भ में ही किया जा सकता है और नैतिक आदर्श का निर्धारण सत् के सन्दर्भ में ही किया जा सकता है । यही एक ऐसा बिन्दु है जहाँ तत्त्वमीमांसा और आचारदर्शन मिलते हैं । अतः दोनों को एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता।
मानवीय अनुभव के विषयों के एक सीमित भाग के व्यवस्थित अध्ययन को विज्ञान कहते हैं । लेकिन जब अध्ययन की दृष्टि व्यापक होती है और उन अनुभवों की आधारभूत मान्यताओं तक जाती है तब वह दर्शन कहलाती है। यद्यपि आचारशास्त्र के अध्ययन का क्षेत्र भी सीमित है, तथापि उसकी अध्ययनदृष्टि व्यापक है और इसी के आधार पर वह दर्शन का अंग है। मानवीय चेतना के तीन पक्ष हैं(१) ज्ञानात्मक, (२) अनुभूत्यात्मक और (३) क्रियात्मक । अतः दार्शनिक अध्ययन के भी तीन विभाग किये गये, जो क्रमशः (१) तत्त्वदर्शन, (२) धर्मदर्शन और (३) आचारदर्शन कहे जाते हैं। इस प्रकार तत्त्वदर्शन, धर्मदर्शन और आचारदर्शन की विषयवस्तु भिन्न नहीं है, मात्र अध्ययन के पक्षों की भिन्नता है। मैकेंजी कहते हैं कि नीतिशास्त्र जीवन के सम्पूर्ण अनुभव पर संकल्प या क्रियाशीलता के दृष्टिकोण से विचार करता है। वह मनुष्य को कर्ता यानी किसी साध्य का अनुसरण करनेवाले प्राणी के रूप में देखता है और ज्ञाता या भोक्ता के रूप में उसे केवल परोक्षतः देखता है। लेकिन वह मनुष्य की सम्पूर्ण क्रियाशीलता का, जिस शुभ को पाने के लिए वह प्रयत्नशील है उसके सम्पूर्ण स्वरूप का, तथा इस प्रयत्न में वह जो कुछ करता है उसके पूरे अर्थ का विचार करता है। चेतना के विविध पक्षों की विभिन्नता के आधार पर भी तत्त्वदर्शन, धर्मदर्शन और आचारदर्शन में एक सीमा के बाद भेद नहीं किया जा सकता क्योंकि जीवन और जगत् एक ऐसी संगति है जिसमें सभी तथ्य परस्पर में इतने सापेक्ष हैं कि उन्हें अलग-अलग नहीं किया जा सकता।
विचारपूर्वक देखा जाय तो जैन, बौद्ध एवं गीता के दर्शन भी तत्त्वदर्शन, धर्मदर्शन और आचारदर्शन के मध्य विभाजक रेखा नहीं खींचते हैं। लगभग सभी भारतीय दर्शनों की यह प्रकृति है कि वे आचारशास्त्र को दर्शन से पृथक् नहीं करते हैं । इस सन्दर्भ में डा० रामानन्द तिवारी लिखते हैं कि न वेदान्त में और न किसी अन्य भारतीय दर्शन में आचारशास्त्र को दर्शन से पृथक् किया गया है। दर्शन मनुष्य के जीवन और ज्ञान के चरम सत्य की खोज का प्रतीक है, सत्य एक और अखण्ड है। अतः दर्शन के किसी पक्ष की मीमांसा, उसे अन्य पक्षों से पथक करके समुचित रीति से नहीं की जा सकती है। अस्तु, वेदान्त और अन्य भारतीय दर्शनों
१. नीतिप्रवेशिका, पृ० २१.
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