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भारतीय और पाश्चात्य नैतिक मानदण्ड के सिद्धान्त
१७१ विविध दृष्टिकोणों के आधार पर विविध नैतिक प्रतिमान बनते हैं, जो एक ही घटना का अलग-अलग नैतिक मूल्यांकन करते हैं ।
नैतिक मूल्यांकन परिस्थिति-सापेक्ष एवं दष्टि-सापेक्ष मूल्यांकन हैं; अतः उनकी मार्वभौम सत्यता का दावा करना भी व्यर्थ है। किसी दृष्टि-विशेष या अपेक्षा-विशेष के आधार पर ही वे सत्य होते हैं । संक्षेप में, सभी नैतिक प्रतिमान मूल्य-दृष्टि-सापेक्ष हैं और मूल्य-दृष्टि स्वयं व्यक्तियों के बौद्धिक विकास, संस्कार तथा सांस्कृतिक सामाजिक एवं भौतिक पर्यावरण पर निर्भर करती है और चंकि व्यक्तियों के बौद्धिक विकास, संस्कार तथा सांस्कृतिक, सामाजिक एवं भौतिक पर्यावरण में विविधता और परिवर्तनशीलता है, अतः नैतिक प्रतिमानों में विविधता या अनेकता स्वाभाविक ही है।
वैयक्तिक शुभ को दृष्टि से प्रस्तुत नैतिक प्रतिमान सामाजिक शुभ की दृष्टि से प्रस्तुत नैतिक प्रतिमान से भिन्न होगा । इसी प्रकार वासना पर आधारित नैतिक प्रतिमान विवेक पर आधारित नैतिक प्रतिमान से अलग होगा । राष्ट्रवाद से प्रभावित व्यक्ति की नैतिक कमौटी अन्तर्राष्ट्रीयता के समर्थक व्यक्ति की नैतिक कसौटी से पृथक् होगी। पूँजीवाद और साम्यवाद के नैतिक मानदण्ड भिन्न-भिन्न ही रहेंगे; अतः हमें नैतिक मानदण्डों की अनेकता को स्वीकार करते हुए यह मानना होगा कि प्रत्येक नैतिक मानदण्ड अपने उस दृष्टिकोण के आधार पर ही सत्य है ।। . कुछ लोग यहाँ किसी परम शुभ की अवधारणा के आधार पर किसी एक नैतिक प्रतिमान का दावा कर सकते हैं; किन्तु वह परम शुभ या तो इन विभिन्न शुभों या हितों को अपने में अन्तर्निहित करेगा, या इनसे पृथक् होगा; यदि वह इन भिन्न-भिन्न मानवीय शुभों को अपने में अन्तनिहित करेगा तो वह भी नैतिक प्रतिमानों की अनेकता को स्वीकार करेगा; और यदि वह इन मानवीय शुभों से पृथक् होगा तो नीतिशास्त्र के लिए व्यर्थ ही होगा, क्योंकि नीतिशास्त्र का पूरा सन्दर्भ मानव-सन्दर्भ है । नैतिक प्रतिमान का प्रश्न तभी तक महत्त्वपूर्ण है जब तक मनुष्य मनुष्य है, यदि मनुष्य मनुष्य के स्तर से ऊपर उठकर देवत्व को प्राप्त कर लेता है या मनुष्य के स्तर से नीचे उतरकर पशु बन जाता है तो उसके लिए नैतिकता या अनैतिकता का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है और ऐसे यथार्थ मनुष्य के लिए नैतिकता के प्रतिमान अनेक ही होंगे। नैतिक प्रतिमानों के सन्दर्भ में यही अनेकान्तदृष्टि सम्यग्दृष्टि होगी। इसे हम नैतिक प्रतिमानों का अनेकान्तवाद कह सकते हैं । १७. जैन दर्शन में सदाचार का मानदण्ड
फिर भी मूल प्रश्न यह है कि जैन दर्शन का चरम साध्य क्या है ? जैन दर्शन अपने चरम साध्य के बारे में स्पष्ट है। उसके अनुसार व्यक्ति का चरम साध्य मोक्ष या निर्वाण की प्राप्ति है, वह यह मानता है कि जो आचरण निर्वाण या मोक्ष की दिशा में जाता है वही सदाचार की कोटि में आता है। दूसरे शब्दों में जो आचरण मुक्ति का
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