________________
जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
मूल प्रवृत्तियाँ एक साथ काम करती हैं। एक ओर वह अपनी अस्मिता को बचाये रखना चाहता है तो दूसरी ओर अपने व्यक्तित्व को व्यापक बनाना चाहता है, समाज के साथ जुड़ना चाहता है । ऐसी बहुआयामी एवं अन्तर्विरोधों से युक्त सत्ता के शुभ या हित एक नहीं, अनेक होंगे और जब मनुष्य के शुभ या हित ( Good ) ही विविध हैं तो फिर नैतिक प्रतिमान भी विविध ही होंगे। किसी परम शुभ ( Ultimate good ) की कल्पना परम सत्ता ( Ultimate reality ) के प्रसंग में चाहे सही भी हो; किन्तु मानवीय अस्तित्व के प्रसंग में सही नहीं है । मनुष्य को मनुष्य मानकर चलना होगाईश्वर मानकर नहीं; और एक मनुष्य के रूप में उसके हित या साध्य विविध ही होंगे। साथ ही हितों या साध्यों की यह विविधता नैतिक प्रतिमानों की अनेकता को ही सूचित करेगी।
नैतिक प्रतिमान का आधार व्यक्ति की जीवन-दृष्टि या मूल्य-दृष्टि होगी, किन्तु व्यक्ति की मूल्य-दृष्टि या जीवन-दृष्टि व्यक्तियों के बौद्धिक विकास, संस्कार एवं पर्यावरण के आधार पर ही निर्मित होती है। व्यक्तियों के बौद्धिक विकास, पर्यावरण और संस्कारों में भिन्नताएं स्वाभाविक हैं, अतः उनकी मूल्य-दृष्टियाँ अलगअलग होंगी और यदि मूल्य-दृष्टियाँ भिन्न-भिन्न होंगी तो नैतिक प्रतिमान भी विविध होंगे । यह एक आनुभाविक तथ्य है कि विविध दृष्टिकोणों के आधार पर एक ही घटना का नैतिक मूल्यांकन अलग-अलग होता है । उदाहरण के रूप में परिवार नियोजन की धारणा, जनसंख्या के बाहुल्य वाले देशों की दृष्टि से चाहे उचित हो, किन्तु अल्प जनसंख्या वाले देशों एवं जातियों की दृष्टियों से अनुचित होगी। राष्ट्रवाद अपनी प्रजाति की अस्मिता की दृष्टि से चाहे अच्छा हो; किन्तु सम्पूर्ण मानवता की दृष्टि से अनुचित है । हम भारतीय ही एक ओर जातिवाद एवं सम्प्रदायवाद को कोसते हैं तो दूसरी ओर भारतीयता के नाम पर अपने को गौरवान्वित अनुभव करते हैं। क्या हम यहाँ दोहरे मापदण्ड का उपयोग नहीं कर रहे हैं ? स्वतन्त्रता की बात को ही लें । क्या स्वतन्त्रता और सामाजिक अनुशासन सहगामी होकर चल सकते हैं ? आपातकाल को ही लीजिये, वैयक्तिक स्वतन्त्रता के हनन की दृष्टि से या नौकरशाही के हावी होने की दृष्टि से हम उसकी आलोचना कर सकते हैं किन्तु अनुशासन बनाये रखने और अराजाता को समाप्त करने की दृष्टि से उसे उचित ठहराया जा सकता है । वस्तुतः उचितता और अनुचितता का मूल्यांकन किसी एक दृष्टिकोण के आधार पर न होकर विविध दृष्टिकोणों के आधार पर होता है, जो एक दृष्टिकोण या अपेक्षा से नैतिक हो सकता है वही दूसरे दृष्टिकोण या अपेक्षा से अनुचित हो सकता है; जो एक परिस्थिति में उचित हो सकता है, वही दूसरी परिस्थिति में अनुचित हो सकता है। जो एक व्यक्ति के लिए उचित है, वही दूसरे के लिए अनुचित हो सकता है । एक स्थूल शरीर वाले व्यक्ति के लिए स्निग्ध पदार्थों का सेवन अनुचित है, किन्तु कृशकाय व्यक्ति के लिए उचित है; अतः हम कह सकते हैं कि नैतिक मूल्यांकन के विविध दृष्टिकोण हैं और इन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org