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भारतीय और पाश्चात्य नैतिक मानदण्ड के सिद्धान्त
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केवल भिन्न-भिन्न शुभों की पृथक्-पृथक् सत्ता है, अपितु वे एक दूसरे के विरोध में भी खड़े हुए हैं। शुभ एक नहीं, अनेक हैं और उनमें पारस्परिक विरोध भी है । क्या आत्मलाभ और आत्मत्याग के बीच कोई विरोध नहीं है ? यदि पूर्णतावादी निम्नआत्मा ( Lower self ) के त्याग द्वारा उच्चात्मा ( Higher self ) के लाभ की बात कहते हैं तो वे जीवन के इन दो पक्षों में विरोध स्वीकार करते हैं । पुनः निम्नात्मा भी हमारी आत्मा है और यदि हम उसके निषेध की बात स्वीकार करते हैं तो हमें पूर्णतावाद के सिद्धान्त को छोड़कर प्रकारान्तर से बुद्धिवाद या वैराग्यवाद को ही स्वीकार करना होगा । इसी प्रकार वैयक्तिक आत्मा और सामाजिक आत्मा का, अथवा स्वार्थ और परार्थ का अन्तर्विरोध भी समाप्त नहीं किया जा सकता है; इसीलिए मूल्यवाद किसी एक मूल्य की बात न कहकर 'मूल्यों' या 'मूल्य-विश्व ' की बात करता है । मूल्यों की विपुलता के इस सिद्धान्त में नैतिक प्रतिमान की विविधता स्वभावतया ही होगी, क्योंकि प्रत्येक मूल्य का मूल्यांकन किसी दृष्टि-विशेष के आधार पर ही होगा । चूंकि मनुष्यों की जीवनदृष्टियां या मूल्यदृष्टियाँ विविध हैं, अतः उनपर आधारित नैतिक प्रतिमान भी विविध ही होंगे । पुनः मूल्यवाद में मूल्यों के तारतम्य को लेकर सदैव हो विवाद रहा है । एक दृष्टि से जो सर्वोच्च मूल्य लगता है, वही दूसरी दृष्टि से निम्न मूल्य हो सकता है । मनुष्य की जीवनदृष्टि या मूल्यदृष्टि का निर्माण भी स्वयं उसके संस्कारों एवं परिवेशजन्य तथ्यों से प्रभावित होता है; अतः मूल्यवाद नैतिक प्रतिमान के' सन्दर्भ में विविधता की धारणा को ही पुष्ट करता है ।
इस प्रकार हम देखते है कि नैतिक प्रतिमान के प्रश्न पर न केवल विविध दृष्टिकोणों से विचार हुआ है, अपितु उसका प्रत्येक सिद्धान्त स्वयं भी इतने अन्तर्विरोधों से युक्त है कि वह एक सार्वभौम नैतिक मापदण्ड होने का दावा करने में असमर्थ है । आज भी इस सम्बन्ध में किसी सर्वमान्य सिद्धान्त का अभाव है ।
वस्तुतः नैतिक मानदण्डों की यह विविधता स्वाभाविक ही है और जो लोग किसी एक सर्वमान्य नैतिक प्रतिमान की बात करते हैं वे कल्पनालोक में ही विचरण करते हैं । नैतिक प्रतिमानों की इस विविधता के कई कारण हैं । सर्वप्रथम तो नैतिकता और अनैतिकता का यह प्रश्न उस मनुष्य के सन्दर्भ में हैं जिसकी प्रकृति बहुआयामी ( Multi-dimensional ) और अन्तर्विरोधों से परिपूर्ण है । मनुष्य केवल चेतनसत्ता नहीं है, अपितु चेतनायुक्त शरीर है; वह केवल व्यक्ति नहीं है, अपितु समाज में जीने वाला व्यक्ति है । उसके अस्तित्व में वासना और विवेक तथा वैयक्तिकता और सामाजिकता के तत्त्व समाहित हैं । यहाँ हमें यह भी समझ लेना है कि वासना और विवेक में तथा व्यक्ति और समाज में स्वभावतः संगति ( Harmony ) नहीं है । वे स्वभावतः एक-दूसरे के विरोध में हैं । मनोवैज्ञानिक भी यह मानते हैं कि 'इड' ( वासना-तत्त्व ) और 'सुपर ईगो' ( आदर्श - तत्त्व ) मानवीय चेतना के समक्ष प्रतिपक्षी के रूप में ही उपस्थित होते हैं । उसमें समर्पण और शासन की दो विरोधी
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