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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन बबिट आत्मसंयम को प्रमुख नैतिक गुण मानते हैं। साध्यवादी परम्परा के सामने यह प्रश्न भी महत्त्वपूर्ण रहा है कि मानवीय चेतना के ज्ञानात्मक, अनुभूत्यात्मक और संकल्पात्मक पक्ष में से किसकी सन्तुष्टि को सर्वाधिक महत्त्व दिया जाए। इस सन्दर्भ में सुखवाद और बुद्धिवाद का विवाद तो सुप्रसिद्ध ही है। सुखवाद जहाँ मनुष्य के अनुभूत्यात्मक ( वासनात्मक ) पक्ष की सन्तुष्टि को मानव-जीवन का साध्य घोषित करता है, वहाँ बुद्धिवाद भावना-निरपेक्ष बुद्धि के आदेशों के परिपालन में ही नैतिक कर्त्तव्य की पूर्णता देखता है । इस प्रकार सुखवाद और बुद्धिवाद के नैतिक प्रतिमान एक-दूसरे से भिन्न हैं। इसका मूल कारण दोनों की मूल्यदृष्टि को भिन्नता है; एक भोगवाद का समर्थक है, तो दूसरा वैराग्यवाद का। मात्र यही नहीं, सुखवादी विचारक भी 'कौन-सा सुख साध्य है ?' इस प्रश्न पर एकमत नहीं हैं ? कोई वैयक्तिक सुख को साध्य बताता है तो कोई समष्टि सुख को अथवा अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख को । पुनः यह सुख, ऐन्द्रिक सुख हो या मानसिक सुख हो अथवा आध्यात्मिक आनन्द हो, इस प्रश्न पर भी मतभेद है । वैराग्यवादी परम्पराएँ भी सुख को साध्य मानती हैं, किन्तु वे जिस सुख की बात करती हैं वह सुख वस्तुगत नहीं है, वह इच्छा आसक्ति या तृष्णा के समाप्त होने पर चेतना की निर्द्वन्द्व, तनावरहित, समाधिपूर्ण अवस्था है । इस प्रकार सुख को साध्य मानने के प्रश्न पर उनमें आम सहमति होते हुए भी उनके नैतिक प्रतिमान भिन्न-भिन्न ही होंगे, क्योंकि सुख की प्रकृतियाँ भिन्न भिन्न हैं।
यद्यपि पूर्णतावाद आत्मोपलब्धि को साध्य मानकर सुखवाद और बुद्धिवाद के बीच समन्वय साधने का प्रयत्न अवश्य करता है; किन्तु वह इस प्रयास में सफल हुआ है, यह नहीं कहा जा सकता । पुनः वह भी किसी एक सार्वभौम नैतिक प्रतिमान को प्रस्तुत कर सकता है, यह मानना भ्रान्तिपूर्ण है, क्योंकि व्यक्तियों के हित न केवल भिन्न-भिन्न हैं, अपितु परस्पर विरोधी भी हैं । रोगी का कल्याण और डॉक्टर का कल्याण एक नहीं है, श्रमिक का कल्याण उसके स्वामी के कल्याण से पृथक ही है; किसी सार्वभौम शुभ ( Universal good ) की बात कितनी ही आकर्षक क्यों न हो, वह भ्रान्ति ही है। वैयक्तिक हितों के योग के अतिरिक्त सामान्य हित ( Common good ) मात्र अमूर्त कल्पना है। न केवल व्यक्तियों के हित या शुभ अलग-अलग होंगे अपितु दो भिन्न परिस्थितियों में एक व्यक्ति के हित भी पृथक्-पृथक होंगे । एक ही व्यक्ति दो भिन्न-भिन्न स्थितियों में दाता और याचक दोनों हो सकता है; किन्तु वया दोनों स्थितियों में उसका हित समान होगा ? समाज में एक का हित दूसरे के हित का बाधक हो सकता है । मात्र यही नहीं, हमारा एक हित हमारे ही दूसरे हित में बाधक हो सकता है । रसनेन्द्रिय या यौन वासना संतुष्टि के शुभ और स्वास्थ्य सम्बन्धी शुभ सहगामी हों यह आवश्यक नहीं है। वस्तुतः यह धारणा कि 'मनुष्य का या मनुष्यों का कोई सामान्य शुभ है' अपने-आपमें अयथार्थ है । जिसे हम सामान्य शुभ कहना चाहते हैं वह विभिन्न शुभों का एक ऐसा स्कन्ध है, जिसमे न
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