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भारतीय और पाश्चात्य नैतिक मापदण्ड के सिद्धान्त
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मतभेद है कि जाति ( समाज ), राज्य शासन और धर्मग्रन्थ द्वारा प्रस्तुत अनेक नियमावलियों में से किसे स्वीकार किया जाए ? पुनः प्रत्येक जाति, राज्य और धर्मग्रन्थ द्वारा प्रस्तुत ये नियमावलियाँ भी अलग-अलग हैं। इस प्रकार बाह्य विधानवाद नैतिक प्रतिमान का कोई एक सिद्धान्त प्रस्तुत कर पाने में असमर्थ है । समकालीन अनुमोदनात्मक सिद्धान्त ( Approbative theories) जो नैतिक प्रतिमान को वैयक्तिक, रुचि सापेक्ष अथवा सामाजिक एवं धार्मिक अनुमोदन पर निर्भर मानते हैं, किसी एक सार्वभौम नैतिक प्रतिमान का दावा करने में असमर्थ हैं । व्यक्तियों का रुचिवैविध्य और सामाजिक आदर्शों में पायी जानेवाली भिन्नताएं सुस्पष्ट ही हैं । धार्मिक अनुशंसा भी अलग-अलग होती है, एक धर्म जिन कर्मों का अनुमोदन करता है और उन्हें नैतिक ठहराता है, दूसरा धर्म उन्हीं कर्मों को निषिद्ध और अनैतिक ठहराता है । वैदिक धर्म और इस्लाम जहाँ पशुबलि को वैध मानते हैं, वहीं जैन, वैष्णव और बौद्ध धर्म उसे अनैतिक और अवैध मानते हैं । निष्कर्ष यही है कि वे सभी सिद्धान्त किसी एक सार्वभौम नैतिक प्रतिमान का दावा करने में असमर्थ हैं, जो नैतिकता की कसौटी, वैयक्तिक रुचि, सामाजिक अनुमोदन अथवा धर्मशास्त्र की अनुशंसा को मानते हैं ।
अन्तः प्रज्ञावाद अथवा सरल शब्दों में कहें तो सिद्धान्त भी किसी एक नैतिक प्रतिमान को दे पाने में जाता है कि अन्तरात्मा के निर्णय सरल, सहज और अपरोक्ष होते हैं, फिर भी अनुभव यह बताता है कि अन्तरात्मा के निर्णयों में एकरूपता अन्तः प्रज्ञावादी ही इस सम्बन्ध में एकमत नहीं हैं
नहीं होती । प्रथम तो स्वयं कि इस अन्तःप्रज्ञा की प्रकृति है, यह बौद्धिक है या भावनापरक । पुनः यह मानना कि सभी की अन्तरात्मा एक-सी है, ठीक नहीं है; क्योंकि अन्तरात्मा की संरचना और उसके निर्णय भी व्यक्ति के संस्कारों पर आधारित होते हैं । पशुबलि के सम्बन्ध परिवारों में संस्कारित व्यक्तियों के अन्तरात्मा के निर्णय एक अन्तरात्मा कोई सरल तथ्य नहीं है, जैसा कि अन्तःप्रज्ञावाद वह विवेकात्मक चेतना के विकास, पारिवारिक एवं सामाजिक संस्कारों तथा परिवेश जन्य तथ्यों द्वारा निर्मित एक जटिल रचना है और ये तीनों बातें हमारी अन्तरात्मा को और उसके निर्णयों को प्रभावित करती हैं ।
में
मुस्लिम एवं जैन समान नहीं होंगे ।
मानता है, अपितु
अन्तरात्मा के अनुमोदन का असमर्थ है । यद्यपि यह कहा
इसी प्रकार साध्यवादी सिद्धान्त भी किसी सार्वभौम नैतिक मानदण्ड का दावा नहीं कर सके हैं, सर्वप्रथम तो उनमें इस प्रश्न को लेकर ही मतभेद है कि मानव-जीवन का साध्य क्या हो सकता है ? मानवतावादी विचारक, जो मानवीय गुण 'के विकास को ही नैतिकता की कसौटी मानते हैं इस बात पर परस्पर सहमत नहीं हैं कि आत्मचेतना, विवेकशीलता और संयम में किले सर्वोच्च मानवीय गुण माना जाए। समकालीन मानवतावादियों में जहाँ वारनर फिटे आत्मचेतनता को प्रमुख मानते हैं, वहाँ सी० बी० गर्नेट और इस्राइल लेविन विवेकशीलता को तथा इरविंग
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