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________________ १७२ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन कारण है, वह सदाचार है; और जो आचरण बन्धन का कारण है, वह दुराचार है । किन्तु यहाँ पर हमें यह भी स्पष्ट करना होगा कि उसका मोक्ष अथवा निर्वाण से क्या तात्पर्य है । जैन धर्म के अनुसार निर्वाण या मोक्ष स्वभाव - दशा एवं आत्मपूर्णता की प्राप्ति है । वस्तुतः हमारा जो निज स्वरूप है उसे प्राप्त कर लेना अथवा हमारी बीजरूप क्षमताओं को विकसित कर आत्मपूर्णता को प्राप्ति ही मोक्ष है । उसकी पारस्परिक शब्दावली में परभाव से हटकर स्वभाव में स्थित हो जाना ही मोक्ष है । यही कारण था कि जैन दार्शनिकों ने धर्म की एक विलक्षण एवं महत्त्वपूर्ण परिभाषा दी है । उनके अनुसार धर्म वह है जो वस्तु का निज स्वभाव है ( वत्थुसहावो धम्मो ) । व्यक्ति का धर्म या साध्य वही हो सकता जो उसकी चेतना या आत्मा का निज स्वभाव है और जो हमारा निज स्वभाव है उसी को पा लेना ही मुक्ति है । अतः उस स्वभाव दशा की ओर ले जाने वाला आचरण ही सदाचरण कहा जा सकता है । पुनः प्रश्न यह उठता है कि हमारा स्वभाव क्या है । भगवतीसूत्र में गौतम ने भगवान् महावीर के सम्मुख यह प्रश्न उपस्थित किया था । वे पूछते हैं, "भगवान्, आत्मा का निज स्वरूप क्या है और आत्मा का साध्य क्या है ?" महावीर ने उनके सब प्रश्नों का जो उत्तर दिया था वही आज भी समस्त जैन आचारदर्शन में किसी कर्म के नैतिक मूल्यांकन का आधार है । महावीर ने कहा था, "आत्मा समत्व स्वरूप है और उस समत्व स्वरूप को प्राप्त कर लेना ही आत्मा का साध्य है ।" दूसरे शब्दों में समता स्वभाव है और विषमता विभाव है । और जो विभाव से स्वभाव की दिशा में अथवा विषमता से समता की दिशा में ले जाता है वही धर्म है, नैतिकता है, सदाचार है । अर्थात् विषमता से समता की ओर ले जाने वाला आचरण ही सदाचार है । संक्षेप में जैन धर्म के अनुसार सदाचार या दुराचार के मानदण्ड समता एवं विषमता अथवा स्वभाव एवं विभाव के तत्त्व हैं । स्वभाव से फलित होने वाला आचरण सदाचार है और विभाव या परभाव से फलित होने वाला आचरण दुराचार है । स्थित हो जाना है, यहाँ हमें समता के स्वरूप पर भी विचार कर लेना होगा । यद्यपि द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से समता का अर्थ परभाव से हटकर शुद्ध स्वभाव दशा में किन्तु अपनी विविध अभिव्यक्तियों की दृष्टि से विभिन्न स्थितियों में इसे विभिन्न नामों से पुकारा जाता है । आध्यात्मिक दृष्टि से समता या स्वभाव का अर्थ राग-द्वेष से ऊपर उठकर वीतरागता या अनासक्त भाव की उपलब्धि है । मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मानसिक समत्व का अर्थ है समस्त इच्छाओं, आकांक्षाओं से रहित मन को शान्त एवं विक्षोभ ( तनाव ) रहित अवस्था । यही समत्व जब हमारे सामुदायिक या सामाजिक जीवन मे फलित होता है तो इसे हम अहिंसा के नाम से अभिहित करते हैं । वैचारिक दृष्टि से इस हम अनाग्रह या अनेकान्त दृष्टि कहते हैं । जब हम इसी समत्व के आर्थिक पक्ष से विचार करते हैं तो अपरिग्रह के नाम से जानते हैं - साम्यवाद एवं न्यासी - सिद्धान्त इसी अपरिग्रह वृत्ति की आधुनिक अभिव्यक्तियाँ हैं । यह समत्व ही मानसिक क्षेत्र में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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