SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५२ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन वासनाओं की पूर्ति के प्रयत्नों से नहीं, अपितु वासनाओं के संयम से ही सम्भव है; क्योंकि तृष्णा की पूर्ति कभी भी सम्भव नहीं । सामाजिक समत्व का विकास संयम से ही हो सकता है । इन भिन्नताओं के होते हुए भी दोनों में बहुत कुछ समानताएँ हैं । १. मानव मात्र को सनमानता में आस्था- - जैन दर्शन और साम्यवाद दोनों ही मानव मात्र की समानता में निष्ठा रखते हैं । दोनों ही यह स्वीकार करते हैं कि प्रत्येक मनुष्य को जीने का समान अधिकार है । अपनी सुख-सुविधाओं के लिए दूसरे का शोषण अनैतिक है । २. संग्रह की प्रवृत्ति का विरोध :- साम्यवाद और जैन दर्शन दोनों ही संग्रह की वृत्ति को अनुचित मानते हैं । दोनों के अनुसार संग्रह एवं वैयक्तिक परिग्रह सामाजिक जीवन के अभिशाप हैं । जैन दर्शन का परिग्रहपरिमाणव्रत अहिंसक साम्यवाद की स्थापना का प्रथम सोपान है । जैन दर्शन न केवल परिग्रह की मर्यादा पर जोर देता है, बल्कि यह भी कहता है कि सामाजिक जीवन में समान वितरण भी आवश्यक है । बुद्ध और महावीर के द्वारा अपने भिक्षुसंघ में प्रतिपादित यह नियम कि 'उपलब्धियों का संविभाग करके भोग करना चाहिए' सम वितरण के सिद्धान्त का प्रयोग ही था । इस प्रकार वैयक्तिक परिग्रह की मर्यादा और समवितरण साम्यवाद और जैन दर्शन दोनों को स्वीकृत है । ३. समत्व का संस्थापन - जैन आचारदर्शन और साम्यवादी चिन्तन दोनों समत्व की संस्थापना को आवश्यक मानते हैं । यद्यपि साम्यवाद आर्थिक समानता को ही महत्वपूर्ण मानता है । उसके लिए समानता का अर्थ है शोषणरहित समाजव्यवस्था | जैन दर्शन म नसिक समत्व की स्थापना पर बल देता है । 'साम्य' दोनों को अभिप्रेत है, फिर भी साम्यवाद में साम्य का अर्थ भौतिक या आर्थिक साम्य है, जबकि जैन दर्शन में साम्य का अर्थ चैत्तसिक साम्य है । जैन दर्शन में साम्य के संस्थापन का सूत्र प्रत्येक व्यक्ति की मनोभूमि से प्रारम्भ होकर सामाजिक जीवन में अभिव्यक्त होता है । साम्यवाद में समत्व का संस्थापन सामूहिक प्रयत्न से होता है, वह सामाजिक साधना है । ४. सम्य नैतिकता का प्रमापक—साम्यवाद में वे कर्म नैतिक माने जाते हैं जो आर्थिक क्षेत्र में समत्व की स्थापना करते हैं, जो सामाजिक आर्थिक समानता को बनाये रखते हैं तथा जो शोषण को समाप्त करते हैं । जैन दर्शन में भी वे कर्म नैतिक माने जाते हैं, जो चैत्त सिक साम्य की स्थापना करने में सहायक हैं । दोनों ही साम्य की संस्थापना को नैतिकता का प्रमापक मानते हैं, यद्यपि दोनों का साम्य का अर्थ थोड़ा भिन्न है | साम्यवाद का परमशुभ शोषणरहित वर्ग विहीन साम्यवादी समाज की रचना है जबकि जैन दर्शन का परमशुभ समभाव या वीतरागदशा की प्राप्ति है | फिर भी दोनों के लिए समत्व, समानता या समता के प्रत्यय समान रूप से नैतिकता के प्रमापक हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy