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________________ भारतीय और पाश्चात्य नैतिक मानदण्ड के सिद्धान्त १५१ की ओट में बुराइयाँ पनपती हैं, लेकिन यदि धार्मिक एवं आध्यात्मिक जीवन बुराइयों के पनपने की सम्भावना के कारण त्याज्य है तो फिर आर्थिक जीवन में भी तो बुराइयाँ पनपती हैं उसे क्यों नहीं छोड़ा जाता ? मार्क्सवादी दर्शन जिस भय से धार्मिक एवं आध्यात्मिक जीवन का परित्याग करता है. जैन दर्शन उसी भय से अर्थप्रधान जीवन को हेय मानता है । वास्तविक दृष्टि यह होनी चाहिए कि जिन कारणों से बुराइयाँ उत्पन्न होती हैं, उनका निरकरण किया जाय। जिस प्रकार अर्थव्यवस्था सम्बन्धी बुराइयों का निराकरण करना साम्यवाद या मार्क्सवाद का ध्येय है, उसी प्रकार जैन दर्शन धर्म एवं अध्यात्म के क्षेत्र की बुराइयों के निराकरण का प्रयास करता है। दोनों ही बुराइयों के निराकरण के लिए प्रयत्नशील हैं, परन्तु दोनों के दृष्टिकोण भिन्न हैं। फिर भी जैन दर्शन आर्थिक क्षेत्र में उत्पन्न बुराइयों के निराकरण को अपनी दृष्टि ओझल नहीं करता । वह आर्थिक क्षेत्र की बुराइयों का मूल कारण व्यक्ति के आध्यात्मिक पतन में ही देखता है और उसके निराकरण का प्रयत्न करता है। वस्तुतः सामाजिक विषमता का मूल आर्थिक जीवन में नहीं, वरन् आध्यात्मिक जीवन में ही है । यदि आर्थिक विकास ही सामाजिक व्यवस्था के परिवर्तन का आधार है तो आज के सम्पन्न राष्ट्र अर्थलोलुपता से मुक्त क्यों नहीं हैं ? आज के सम्पन्न व्यक्ति एवं राष्ट्र उतने ही अर्थलोलुप हैं जितने आदिम युग के कबीले थे। अतः सामाजिक विषमता का निराकरण अर्थप्रधान दृष्टि में नहीं, वरन् हमारी आध्यात्मिक एवं धार्मिक जीवन दृष्टि में ही सम्भव है। ३. भोगमय एवं त्यागमय जीवन दृष्टि में अन्तर-मार्क्सवादी नैतिक दर्शन और जैन आचारदर्शन में एक मौलिक अन्तर यह है कि जहाँ जैन दर्शन संयम पर जोर देता है, वहाँ साम्यवाद में संयम या वासनाओं के नियन्त्रण का कोई स्थान नहीं है । भोगमय दृष्टि में साम्यवादी दृष्टिकोण और पूंजीवादी दृष्टिकोण समान हैं। दोनों ही उद्दाम वासनाओं की पूर्ति में अविराम गति से लगे हुए हैं। दोनों ही जीवन की आवश्यकताओं और लालसाओं में अन्तर स्पष्ट नहीं कर प रहे हैं। लेकिन विलासिता की दृष्टि से आज तक कोई भी व्यक्ति एवं समाज अपने को शोषण, उत्पीड़न और क्रूरता से नहीं बचा सका है। आज की कठिनाई सम्भवतः यह है कि हम जीवन की आवश्यकताओं एवं विलासिता में अन्तर नहीं कर पा रहे हैं। साम्यवादी अथवा भौतिकवादी दृष्टि में जीवन की आवश्यकता की परिभाषा यह है कि आवश्यकता समाज के द्वारा अनुमोदित होनी चाहिए। समाज को समानता के स्तर पर विलासी बनने का मौका मिले तो मार्क्सवादी एवं भौतिकवादी विचारक उसे ठुकराने के पक्ष में नहीं हैं। इसके विपरीत जैन दर्शन की दृष्टि में आवश्यकता का तात्पर्य इतना ही है कि जो जीवन को बनाये रखे और व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास को कुण्ठित न करे। जैन दर्शन न केवल आवश्यकता के परिसीमन पर जोर देता है, वरन् वह यह भी कहता है कि हमें जीवन की अनिवार्यताओं तथा तृष्णा (लालसा) के अन्तर को स्पष्ट रूप से जानना चाहिए । वस्तुतः सामाजिक विषमता का निराकरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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