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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्म र अध्ययन और व्यवहार के किन्हीं ऐसे आदर्शों एवं मर्यादाओं की स्वीकृति जिनके अभाव में मानव की मानवता और मानवीय समाज का अस्तित्व ही खतरे में होगा। यदि नीति की मूल्यवत्ता का निषेध कोई दृष्टि कर सकती है, तो वह मात्र पाशविक भोगवादी दृष्टि है; यह दृष्टि मनुष्य को एक पशु से अधिक नहीं मानती है। यह सत्य है कि यदि मनुष्य मात्र पशु है तो नीति का कोई अर्थ नहीं है, किन्तु क्या आज मनुष्य का अवमूल्यन पशु के स्तर पर किया जा सकता है ? क्या मनुष्य निरा पशु है ? यदि मनुष्य निरा पशु होता तो निश्चय ही उसके लिए नीति की कोई आवश्यकता नहीं होती। किन्तु आज का मनुष्य पशु नहीं है । उसकी सामाजिकता उसके स्वभाव से निस्सृत है। अतः उसके लिए नीति की स्वीकृति आवश्यक है। मार्क्सवाद और जैन दर्शन सामाजिक न्याय और समता पर बल देते हैं फिर भी दोनों में कुछ आधारभूत भिन्नताएँ हैं जिनपर विचार कर लेना आवश्यक है।
१. भौतिक एवं आध्यात्मिक आधारों में अन्तर-मार्क्स नैतिकता की व्याख्या द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के आधार पर करते हैं। अतः उनके नैतिक आदर्श के निर्धारण में आध्यात्मिकता का कोई स्थान नहीं है। माक्र्सवाद का आधार भौतिक है, जबकि जैन दर्शन में नैतिकता का आधार आध्यात्मिकता है। नैतिकता के लिए आध्यात्मिक आधार इसलिए आवश्यक है कि उसके अभाव में नैतिकता के लिए कोई आन्तरिक आधार नहीं मिल पाता है। संकोच , भय, लज्जा और कानून-ये सब अनैतिकता के प्रतिषेध हैं, लेकिन ये बाह्य हैं। उसका वास्तविक प्रतिषध केवल अध्यात्म ही हो सकता है। अध्यात्म सब प्रतिषेधों का प्रतिषेध है, वह नैतिक जीवन का सर्वोच्च प्रहरी है । आध्यात्मिकता ही एक ऐसा आधार है जिसमें नैतिकता बाहर से थोपी नहीं जाती, अपितु अन्दर से विकसित होती है। भौतिकवाद में स्वार्थ के निवारण का कोई वास्तविक आधार नहीं है। आध्यात्मिकता ही एक ऐसा आधार है जो व्यक्ति को स्वार्थ से पूर्णतया ऊपर उठा सकता है। जहाँ व्यक्ति को भौतिक स्पर्धाओं में से गुजरने की छूट है और भौतिक विकास ही परम लक्ष्य है, वहाँ व्यक्ति अपने व्यक्तित्व को समाज में विलीन नहीं कर सकता। जब तक व्यक्ति अपने को समाज में विलीन नहीं कर सकता, वह स्वार्थ से ऊपर भी नहीं उठ सकता । अतः नैतिक जीवन के लिए आध्यात्मिक आधार अपेक्षित है।
२. आर्थिक एवं धार्मिक दृष्टिकोण में अन्तर-मार्क्सवादी नैतिक दर्शन के अनुसार आर्थिक क्रियाएँ ही समग्र मानवीय चिन्तन और प्रगति की केन्द्र हैं । धर्म, दर्शन, कला एवं सामाजिक संस्थाएँ सभी विकासमान आर्थिक प्रक्रिया पर आश्रित हैं और इसी विकासमान आर्थिक प्रक्रिया में ही नैतिक प्रत्ययों की सार्थकता निहित है। इस प्रकार साम्यवादी दृष्टिकोण अर्थप्रधान है, लेकिन इसके विपरीत जैन दर्शन के अनुसार नैतिक प्रगति का केन्द्र आत्मा है। मावर्सवाद अपने नैतिक दर्शन में अध्यात्म एवं धर्म को इसलिए कोई स्थान नहीं देन चाहता कि अध्यात्म तथा धर्म
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