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________________ भारतीय और पाश्चात्य नैतिक मानदण्ड के सिद्धान्त १४९ विचारकों ने भी भौतिक सुखों की क्षणिक और दुःखपूर्ण मानकर उनके परित्याग का ही निर्देश दिया है । यद्यपि यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि जैन दर्शन और किर्केगार्ड दोनों ही यह मानते हैं कि भौतिक जीवन एवं शरीर की पूर्ण उपेक्षा सम्भव नहीं है । fगार्ड के अनुसार मनुष्य को कम से कम ईश्वर - सान्निध्य और आनन्द प्राप्त करने के लिए तो शरीर को स्वस्थ रखना पड़ेगा और इसलिए थोड़ा-बहुत ईश्वर को भूल कर भी शरीर का रक्षण किया जाता है । यद्यपि शरीर- रक्षा एवं भौतिक जीवन के जीने में कुछ समय के लिए परमात्मा के सान्निध्य से दूर हो जाते हैं, लेकिन ये वंचित क्षण व्यक्ति में तीव्र आत्मग्लानि पैदा करते हैं और व्यक्ति पुनः उस अवस्था में लौट जाना चाहता है । जैन आचारदर्शन के गुणस्थान सिद्धान्त में इसी तथ्य को अत्यन्त सूक्ष्मता से समझाया गया है । उसमें बताया गया है कि सच्चा साधक (अप्रमत्त मुनि ) सदैव ही आत्मरमण में लीन रहता है, लेकिन वह भी दैहिक क्रियाओं के निमित्त उस आत्मरमण के अप्रमत्त संयत गुणस्थान से नीचे प्रमत्तसंयत गुणस्थान में उतर आता है और दैहिक क्रियाओं से निवृत्त हो पुनः साधना की अग्रिम भूमिका पर प्रस्थित हो जाता है । १०. मार्क्सवाद और जैन आचारदर्शन यह कहा जाता है कि वर्तमान में साम्यवादी दर्शन नीति की मूल्यवत्ता को अस्वीकार करता है, किन्तु इस सम्बन्ध में मार्क्स के अनुयायी लेनिन का वक्तव्य द्रष्टव्य है । वे कहते हैं कि 'प्रायः यह कहा जाता है कि हमारा अपना कोई नीतिशास्त्र नहीं है; बहुधा मध्यवित्तीय वर्ग कहता है कि हम सब प्रकार के नीतिशास्त्र का खण्डन करते हैं ( किन्तु ) उनका यह तरीका विचारों को भ्रष्ट करना है, श्रमिकों और कृषकों की आँख में धूल झोंकना है । हम उनका खण्डन करते हैं जो ईश्वरीय आदेशों से नीतिशास्त्र को आविर्भूत करते हैं । हम कहते हैं यह धोखाधड़ी है और श्रमिकों और कृषकों के मस्तिष्कों को पूँजीपतियों और भूपतियों के स्वार्थ के लिए सन्देह में डालता है, हम कहते हैं कि हमारा नीतिशास्त्र सर्वहारा वर्ग के वर्गसंघर्ष के हितों के अधीन है; जो शोषक समाज को नष्ट करे, जो श्रमिकों को संगठित करे और साम्यवादी समाज की स्थापना करे, वही नीति है ( शेष सब अनीति है ) ।' इस प्रकार साम्यवादी दर्शन नैतिक मूल्यों का मूल्यान्तरण तो करता है, किन्तु स्वयं नीति की मूल्यवत्ता का निषेध नहीं करता; वह उस नीति का समर्थक है जो अन्याय एवं शोषण की विरोधी है और सामाजिक समता की संस्थापक है, जो पीड़ित और शोषित को अपना अधिकार दिलाती है और सामाजिक न्याय की स्थापना करती है । यह ठीक है कि मार्क्स भौतिकवादी है, किन्तु वह भौतिकवादी दर्शन, जो सामाजिक एवं साहचर्य के मूल्यों का समर्थक है, नीति की मूल्यवत्ता का निषेधक नहीं हो सकता है । यदि हम मनुष्य को एक विवेकवान सामाजिक प्राणी मानते हैं, तो हमें नैतिक मूल्यों को अवश्य स्वीकार करना होगा । वस्तुतः नीति का अर्थ है किन्हीं विवेकपूर्ण साध्यों की प्राप्ति के लिए वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में आचार For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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