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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
आत्माभिमुखता के लिए किर्केगार्ड के समान जैन आचार्यों ने भी स्वयं की मृत्यु के विचार का उदाहरण दिया है । जैन आचार्य भी यह मानते हैं कि स्वयं की मृत्यु का विचार समग्र जीवन में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन ला देता है ।
दुःखमयता का बोध
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किर्केगार्ड के अनुसार जब हम अपनी दृष्टि अन्तर्मुखी करते हैं और अपनी आन्तरिक सत्ता का विचार करते हैं तो एक ओर हम अपनी अन्तःचेतना को अक्षुण्ण आनन्द, अनन्त शक्ति, शाश्वत जीवन और पूर्णता की सजीव कल्पना से अभिभूत पाते हैं; तो दूसरी ओर हमें अपने वर्तमान जीवन की क्षुद्रता दुःखमयता और अपूर्णता का बोध होता है । इसी अन्तर्विरोध में विषाद या वेदना का जन्म होता है । यही विषाद या दुःखबोध सत्तावादी दर्शन में नैतिक प्रगति का प्रथम चरण है ।
जैन आचारदर्शन में भी वर्तमान जीवन की दुःखमयता एवं क्षुद्रता का बोध आध्यात्मिकता प्रगति के लिए आवश्यक माना गया है । जैन दर्शन में प्रतिपादित अनुप्रेक्षाओं में अनित्यभावना, अशरगभावना और अशुचिभावना के प्रत्यय इसी विषाद की तीव्रतम अनुभूति पर बल देते हैं । बौद्ध दर्शन में भी इसी दुःखबोध के ' प्रत्यय को प्रथम आर्यसत्य माना गया है। गीता की तो रचना ही 'विषाद योग नामक प्रथम अध्याय से प्रारम्भ होती है । जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शन सत्तावाद के साथ इस विषय में भी एकमत हैं कि वर्तमान अपूर्णता एवं नश्वरता से प्रत्युपन्नविषाद या दुःख की तीव्रतम अनुभूति ही नैतिक साधना का प्रथम चरण है । यह वह प्यास या अभीप्सा है, जो मनुष्य को सत्य या परमात्मा के निकट ले जाती है | तीव्रतम प्यास से पानी की खोज प्रारम्भ होती है, दुःख की वेदना में ही शाश्वत आनन्द की खोज का प्रयत्न प्रारम्भ होता है । शाश्वत आनन्द पदार्थों के भोग में नहीं
किर्केगार्ड के अनुसार यदि विषाद यो दुःखानुभूति क्षणिक है तो व्यक्ति बाह्य संसार में सापेक्ष वस्तुगत सुखों के भोग में अनुराग लेने लगता है । लेकिन बाह्य - सांसारिक सुख और आन्तरिक अनन्त आनन्द दोनों को एक साथ प्राप्त नहीं किया जा सकता । वह अपनी प्रसिद्ध पुस्तक " Either - Or" में कहता है कि या तो हम सांसारिक सुखों के भोग में अनुरक्त रहें और आत्मगत निरपेक्ष आनन्द को प्राप्त न करें या सांसारिक वस्तुगत सापेक्ष सुखों को छोड़कर परम आनन्द की उपलब्धि करें । लेकिन जैसे-जैसे व्यक्ति को भोगमय जीवन की अपूर्णता और हीनता का बोध होने लगता है, वैसे-वैसे वह अन्तर्मुखी होता जाता है और निरपेक्ष आनन्द - सत् और शुभ के प्रति उसकी अभिरुचि बढ़ती जाती है । इस प्रकार सत्तावाद के अनुसार जीवन का सार बाह्य वस्तुगत सुख नहीं, वरन् शाश्वत, अनन्त, पूर्ण और निरपेक्ष आत्मिक आनन्द है ।
जैन आचारदर्शन भी सत्तावाद के समान जीवन का परमसाध्य वस्तुगत नश्वर सुखों को नहीं, वरन् शाश्वत आत्मिक आनन्द को ही स्वीकार करता है । जैन
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