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भारतीय और पाश्चात्य नैतिक मानदण्ड के सिद्धान्त .
१४७ खलती है। यदि इसी मृत्यु की बात को हम अपने ऊपर लागू करें कि हमारी मृत्यु हो रही है, तो यह विचार हमारी भावनाओं, धारणाओं, योजनाओं और कार्यकलापों को एकदम बदल देता है । हम अपनी मृत्यु के विचार से एकदम गम्भीर हो जाते हैं। हमारे आचरण में अन्तर आ जाता है, जीवन में क्रान्ति हो जाती है। इस प्रकार आत्मगत चिन्तन को नैतिक जीवन का अनिवार्य तत्त्व और नैतिक पथ पर अग्रसर होने का प्रथम चरण मानते हैं। - जैन आचारदर्शन इस विषय में सत्तावाद का सहगामी है। उसके अनुसार भी सच्ची नैतिकता का उद्भव आत्माभिमुख होने पर होता है । जैन चिन्तन का स्पष्ट निर्देश है कि जितना आत्मरमण है उतनी नैतिकता है और जितना पररमण है उतनी अनैतिकता है ।' पररमण, पुद्गलपरिणति या विषयाभिमुखता अनैतिकता है और आत्म रमण या स्व में अवस्थिति नैतिकता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि आत्मा जब स्व-स्वभाव में स्थित होता है तब वह स्व-समय ( नैतिक ) होता है और जब 'पर' पौद्गलिक कर्मप्रदेशों में स्थित होता हुआ परस्वभाव रूप राग-द्वेष-मोह का परिणमन करता है तब वह पर-समय ( अनैतिक ) है। इसी जैन दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए मुनि नथमल जी लिखते हैं कि नैतिकता जब मुझसे भिन्न वस्तु है तो वह मुझसे परोक्ष होगी और परोक्ष के प्रति मेरा उतना लगाव नहीं होगा जितने की उससे अपेक्षा होती है। वह ( नैतिकता) मुझसे अभिन्न होकर ही मेरे स्व में घुल सकती है । सात्म्य हुए बिना कोई औषध भी परिणामजनक नहीं होती, तब नैतिकता की परिणति कैसे होगी ? नैतिकता उपदेश्य नहीं है, वह स्वयंप्रसूत है। स्व परोक्षता का नाम ही अन-आध्यात्मिकता है। इसकी परिधि में व्यक्ति पूर्ण नैतिक नहीं बन पाता, इसीलिए महावीर ने कहा था कि जो आत्मरमण है वह अहिंसा है, जितना बाह्य रमण है वह हिंसा है। इसी सत्य की इन शब्दों में पुनरावृत्ति की जा सकती है कि जितनी आत्म-प्रत्यक्षता है वह नैतिकता है और जितनी आत्म-परोक्षता है वह अनैतिकता है।
जैन दर्शन का सम्यकदष्टित्व सत्तावादी दर्शन के आत्मगत चिन्तन, आत्माभिमुखता, आत्म-अवस्थिति का ही पर्यायवाची है। जिस प्रकार सत्तावादी दर्शन में आत्मगत चिन्तन से नैतिक जीवन का द्वार उद्घाटित होता है, उसी प्रकार जैन दर्शन में सम्यक् दृष्टि की उपलब्धि से ही नैतिक जीवन का प्रवेशद्वार खुलता है। आत्माभिमुख होना ही सम्यक्दर्शन की उपलब्धि का सही स्वरूप है। दोनों में वास्तविक समानता है। विशेषावश्यक भाष्य में भी कहा गया है कि धर्म और अधर्म का आधार आत्मा की अपनी परिणति ही है, दूसरों की प्रसन्नता या नाराजगी नहीं।3.
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१. देखिए-आचारांग, ११२।६।१०२,
ओघनियुक्ति, ७५४. २. नैतिकता का गुरुत्वाकर्षण, पृ० ११. ३. विशेषावश्यकभाष्य, ३२५४.
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