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वैयक्तिक नीतिशास्त्र
आचारदर्शन की दृष्टि से सभी सत्तावादी विचारक व्यक्तिवादी हैं । उनकी दृष्टि में आचारदर्शन आत्मसापेक्ष है, परसापेक्ष या समाजसापेक्ष नहीं । नैतिक आचरण दूसरे लोगों के लिए नहीं, वरन् स्वयं व्यक्ति के लिए है । नैतिकता का अर्थ. लोककल्याण नहीं, वरन् आत्मोत्थान है । कर्म की नैतिकता का मूल्यांकन इस आधार पर किया जाना चाहिए कि उसमें कितनी तीव्र आत्मवेदना या स्व की सत्ता का बोध है, न कि इस आधार पर कि वह कितना अधिक लोकहितकारी है । सत्तावाद के जनक किर्केगार्ड के अनुसार नैतिकता आत्मकेन्द्रित है कहा जाता है। कि उन्होंने नैतिक चिन्तन में कोपरनिकसीय क्रान्ति ला दी है । उनके पूर्ववर्ती अधिकांश आचारशास्त्री नैतिकता को परसापेक्ष मानते थे । उनकी दृष्टि में हमारा नैतिक आचरण दूसरे लोगों के लिए है, यदि हम ऐसे एकान्त स्थान में रहें जहाँ दूसरा कोई व्यक्ति न हो तो हमारे लिए नैतिकता का कोई प्रश्न ही नहीं उठता । लेकिन किर्केगार्ड इस विचार से सहमत नहीं हैं । उनके अनुसार नैतिकता का सम्बन्ध व्यक्ति की स्वयं की आत्मा से है न कि अन्य लोगों या समाज से ।
जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
जहाँ तक जैन आचारदर्शन की बात है, निश्चयनय की दृष्टि से वह व्यक्तिवाद - का ही समर्थक है । उसकी मान्यता है कि आत्महित ही नैतिक जीवन का प्रमुख तत्त्व है । आत्महित करते हुए लोकहित सम्भव हो तो किया जा सकता है । लेकिन यदि लोकहित और आत्महित में विरोध हो तो आत्महित करना ही श्रेयस्कर है । " इस प्रकार व्यक्तिवाद के समर्थन में जैन आचारदर्शन और सत्तावादी नीतिशास्त्र साथ साथ चलते हैं । दोनों की दृष्टि में आत्मोत्थान या वैयक्तिक साध्य 'स्व' ही है जिसकी उपलब्धि ही नैतिक जीवन का सार है ।
अन्तर्मुखी चिन्तन
सत्तावादी चिन्तक, विशेषरूप से किर्केगार्ड नैतिकता को अनिवार्यतया आत्मकेन्द्रित मानते हैं । उनकी दृष्टि में सच्चे नैतिक जीवन का प्रारम्भ आत्मगत चिन्तन या अन्तर्मुखी प्रवृत्ति में होता है । अन्तर्मुखता या आत्माभिमुख होना नैतिकता का प्रवेशद्वार है । जबतक विषयगत चिन्तन है, विषयाभिमुखता है, तबतक नैतिक जीवन में प्रवेश सम्भव नहीं । चिन्तन विषयाभिमुख होने पर उसका स्वयं के जीवन पर कोई प्रभाव नहीं होता - उसमें विचारों की निष्क्रिय भाग-दौड़ होती है । सैद्धान्तिक कहना - सुनना मात्र होता है । आत्मगत चिन्तन में हम सत्य में ही स्थित होते हैं । उसके अपने शब्दों में किसी बात को सोचना एक बात है और उस सोची हुई बात में रहना दूसरी बात है । किर्केगार्ड इस सम्बन्ध में मृत्यु का उदाहरण देते हैं । उनका कहना है कि जब तक हम मृत्यु का विषयगत चिन्तन करते हैं, तब तक उसका हमारे ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । समाचारपत्रों में लोगों की पढ़ते हैं, लोगों को मरते हुए देखते हैं; लेकिन दूसरों की मृत्यु
१. उद्धृत - आत्मसाधनासंग्रह, पृ० ४४१.
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मृत्यु के समाचार हमें अधिक नहीं
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