SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 190
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भारतीय और पाश्चात्य नैतिक मानदण्ड के सिद्धान्त १४५ भारतीय संस्कृति की विशेषता रहा है, इसलिए बबिट का यह विचार भारतीय चिन्तन के लिए कोई नयी बात नहीं है। समकालीन मानवतावादी विचारकों के उपर्युक्त तीनों सिद्धान्त यद्यपि भारतीय चिन्तन में स्वीकृत हैं, तथापि भारतीय विचारकों की यह विशेषता रही है कि उन्होंने इन तीनों को समवेत रूप से स्वीकार किया है। जैन दर्शन में सम्यक् ज्ञान, दर्शन और चारित्र के रूप में; बौद्ध दर्शन में शील, समाधि और प्रज्ञा के रूप में; तथा गीता में श्रद्धा, ज्ञान और कर्म के रूप में प्रकारान्तर से इन्हें स्वीकार किया गया है। यद्यपि गीता की श्रद्धा को आत्मचेतनता नहीं कहा जा सकता तथापि गीता में अप्रमाद के रूप में आत्मचेतनता स्वीकृत है । बौद्ध दर्शन के इस त्रिविध साधनापथ में समाधि आत्मचेतनता का, प्रज्ञा विवेक का और शोल संयम का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसी प्रकार जैन दर्शन में सम्यक्दर्शन आत्मचेतनता का, सम्यक्ज्ञान विवेक का और सम्यक्चारित्र संयम का प्रतिनिधित्व करते हैं । $ ९. सत्तावादी नीतिशास्त्र और जैन दर्शन ___ 'सत्तावाद' समकालीन दार्शनिक चिन्तन का एक प्रमुख दार्शनिक सम्प्रदाय है । किर्केगार्ड, हेडेगर, सात्र और जेस्पर्स इस वाद के प्रमुख विचारक हैं । यद्यपि सत्तावादी विचारकों में किसी सीमा तक मतभेद है तथापि कुछ सामान्य प्रश्नों पर वे सभी एकमत हैं। सत्तावाद की प्रमुख विशेषता यह है कि वह बुद्धिवाद एवं विषयगत चिन्तन का विरोधी है तथा आत्मनिष्ठता और अन्तान पर अधिक बल देता है।' आचार दर्शन-विषयक अनेक प्रश्नों में सत्तावाद जैन दर्शन के अधिक निकट है। अतः उसका संक्षिप्त तुलनात्मक अध्ययन अपेक्षित है। आचारदर्शन को प्रमुखता जैन दर्शन के समान सत्तावाद के प्रमुख विचारक किर्केगार्ड भी तत्त्वमीमांसा में उतनी रुचि नहीं रखते, जितनी आचारदर्शन में। उनकी दृष्टि में केवल सत् शिव और सुन्दर से ऊँचा नहीं है। नैतिक आत्मसत्ता ही सत् है क्योंकि वह गत्यात्मक और उदीयमान है तथा व्यक्ति को महनीयता प्रदान करती है। नैतिक आत्मसत्ता का ज्ञान कोरा ज्ञान नहीं है, वरन् उसमें हमारे जीवन को अधिक ऊंचा और महान् बनाने की प्रेरणा भी है । जैन दर्शन भी निरे तत्त्वज्ञान का विरोधी है। जो तत्त्वज्ञान आत्मविकास की दिशा में नहीं ले जाता वह निरर्थक ही है। उत्तराध्ययनसूत्र में ऐसे निरर्थक ज्ञान का उपहास किया गया है ।२ जो ज्ञान नैतिक जीवन से सम्बन्धित नहीं है और नैतिक जीवन को प्रेरणा नहीं देता, वह ज्ञान सत्तावाद और जैन आचारदर्शन दोनों के लिए ही अनावश्यक है। बुद्ध ने भी निरी तत्त्वमीमांसा की उपेक्षा ही की थी। १. देखिए-समकालिक दार्शनिक चिन्तन, पृ० २२१-२४६. २. उत्तराध्ययन, ६।९-११; तुलना कीजिए-धम्मपद, २५९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy