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________________ १४४ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन मय जीवन जीने में है और न विवेकपूर्ण जीवन में, वरन् वह संयमपूर्ण जीवन या अनुशासन में है । बबिट आधुनिक युग के संकट का कारण यह बताते हैं कि एक ओर हमने परम्परागत ( कठोर वैराग्यवादी ) धारणाओं को तोड़ दिया और उनके स्थान पर छद्म रूप में आदिम भोगवाद को ही प्रस्तुत किया है। वर्तमान युग के विचारकों ने परम्परागत धारणाओं के प्रतिवाद में एक ऐसी गलत दिशा का चयन किया है जिसमें मानवीय हितों को चोट पहुंची है। उनका कथन है कि मनुष्य में निहित वासनारूपी पाप को अस्वीकृत करने का अर्थ उस बराई को ही दष्टि से ओझल कर देना है जिसके कारण मानवीय सभ्यता का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है। मनुष्य की वासनाएँ हैं पाप हैं, अनैतिकता है, इस बात को भूलकर हम मानवीय सभ्यता का विनाश करेंगे, और उसके प्रति जाग्रत रहकर मानवीय भ्यता का विकास कर सकेंगे। बबिट बहुत ही ओजपूर्ण शब्दों में कहते हैं कि हममें जैविक प्रवेग ( Vital Impulse ) तो बहुत है, आवश्यकता है जैविक नियन्त्रण की। हमें अपनी वासनाओं पर नियन्त्रण करना चाहिए। केवल सहानुभूति के नाम पर सामाजिक एकता नहीं आ सकती। मनुष्यों को सहानुभूति के सामान्य तत्त्व के आधार पर नहीं, वरन् अनुशासन के सामान्य तत्त्व के आधार पर ही एकदूसरे के निकट लाया जा सकता है। सहानुभूति के विस्तार का नैतिक दर्शन केवल भावनात्मक मानवतावाद की स्थापना करता है, जबकि आवश्यकता ऐसे ठोस मानवतावाद की है जो अनुशासन पर बनता है । तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर ज्ञात होता है कि भारतीय आचारदर्शन आत्मसंयम के प्रत्यय को स्वीकार करते हैं। जैन दर्शन नैतिक पूर्णता के लिए संयम को आवश्यक मानता है। उसके विविध साधनापथ में सम्यक् आचरण का भी वही मूल्य है जो विवेक और भावना का है । दशवकालिकसूत्र में धर्म को अहिंसा, संयम और तपमय बताया है। अहिंसा और तप भी संयम के ही पोषक हैं और इस अर्थ में संयम एक महत्त्वपूर्ण अंग है । भिक्षु-जीवन और गृहस्थ-जीवन के आचरण में संयम या अनुशासन को सवत्र महत्त्व दिया गया है। महावीर के सम्पूर्ण उपदेश का सार असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति है। इस प्रकार बबिट का यह दृष्टिकोण जैन दर्शन के अति निकट है। बबिट का यह कहना भी कि वर्तमान युग के संकट का कारण संयमात्मक मूल्यों का ह्रास है, जैन दर्शन को भी स्वीकार है। वस्तुत: आत्मसंयम और अनुशासन आज के युग की सबसे महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है। न केवल जैन दर्शन में, वरन् बौद्ध और वैदिक दर्शनों में भी संयम और अनुशासन को आवश्यक माना गया है। भारतीय नैतिक चिन्तन में संयम का प्रत्यय सभी आचारदर्शनों में और सभी कालों में बराबर स्वीकृत रहा है। संयममय जीवन १. दशवैकालिकसूत्र, १११. २. उत्तराध्ययन, ३१।२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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