SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 188
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भारतीय और पाश्चात्य नैतिक मानदण्ड के सिद्धान्त १४३ सद्गुण मानते हैं और प्रज्ञा या विवेक से निर्देशित जीवन जीने में नैतिकता के सारतत्त्व की अभिव्यक्ति मानते हैं । उनके अनुसार नैतिकता की सम्यक् एवं सार्थक व्याख्या शुभ, उचित, कर्तव्य आदि नैतिक प्रत्ययों की व्याख्या में नहीं, वरन् आचरण में विवेक के सामान्य प्रत्यय में है। आचरण में विवेक एक ऐसा तत्त्व है, जो नैतिक परिस्थिति के अस्तित्ववान पक्ष अर्थात् चरित्र, प्रेरणाएँ, आदत, रागात्मकता, विभेदीकरण मूल्यनिर्धारण और साध्य को दृष्टि में रखता है। इन सभी पक्षों को पूर्णतया दृष्टि में रखे बिना जीवन में विवेकपूर्ण आचरण की आशा नहीं की जा सकती। आचरण में विवेक एक ऐसी लोचपूर्ण दृष्टि है, जो समग्र परिस्थितियों के सभी पक्षों की सम्यक् विचारणा के साथ खोज करती हुई सुयोग्य चुनाव करती है । लेविन ने आचरण में विवेक का तात्पर्य एक समयोजनात्मक क्षमता से माना है। उसके अनुसार नैतिक होने का अर्थ मानव की मूलभूत क्षमताओं की अभिव्यक्ति है। गर्नेट और लेविन के आचरण में विवेक का प्रत्यय जैन विचारणा तथा अन्य सभी भारतीय विचारणाओं में भी मान्य रहा है । जैन विचारकों ने सम्यक्ज्ञान के रूप में जो साधनामार्ग बताया है वह केवल तार्किक ज्ञान नहीं है, वरन् एक विवेकपूर्ण दृष्टि है । जैन परम्परा में विवेकपूर्ण आचरण के लिए 'यतना' शब्द का प्रयोग हुआ है। दशवकालिकसूत्र में स्पष्ट रूप से यह बताया गया है कि 'जो जीवन की विभिन्न क्रियाओं को विवेक या सावधानीपूर्वक सम्पादित करता है वह अनैतिक आचरण नहीं करता है।' बौद्ध परम्परा में भी यही दृष्टिकोण स्वीकृत है । बुद्ध ने भी अंगुत्तरनिकाय में महावीर के समान ही इस तथ्य का प्रतिपादन किया है। गीता में कर्मकौशल को ही योग कहा है। इस प्रकार भारतीय आचारदर्शनों में भी आचरण में विवेक का प्रत्यय स्वीकृत रहा है। गर्नेट ने आचरण में विवेक के लिए समग्र परिस्थितियों एवं सभी पक्षों का विचार आवश्यक माना है जिसे हम जैन दर्शन के अनेकान्तवाद के सिद्धान्त के द्वारा स्पष्ट कर सकते हैं । अनेकान्तवाद कहता है कि विचार के क्षेत्र में एकांगी दृष्टिकोण रखकर निर्णय नहीं लेना चाहिए, वरन् एक सर्वांगीण दृष्टिकोण रखना चाहिए । गर्नेट का कर्म के सभी पक्षों के विचार का प्रत्यय अनेकान्तवादी सर्वांगीण दृष्टिकोण से अधिक दूर नहीं है। ३. आत्मसंयन का सिद्धान्त और जैन दर्शन मानवतावादी नैतिक दर्शन के तीसरे वर्ग का प्रतिनिधित्व इरविंग बबिट२ करते हैं । बबिट के अनुसार मानवता एवं नैतिक जीवन का सार न तो आत्मचेतना१. दशवैकालिक, ४।८. २. बबिट के दृष्टिकोण के लिए देखिए-(अ) कण्टेम्पररि एथिकल थ्योरीज, पृ० १८५-१८६. (ब) दि ब्रेकडाउन आफ इण्टरनेशनलिज्म ___ -प्रकाशित 'दि नेशन' खण्ड स (८) जून १९१५. (स) आन बीइंग क्रिएटिव-बबिट. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy