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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
'भूमा' कहा गया है । ऋषि कहता है कि जो भूमा या अनन्त है वही सुख है अल्प अनित्य में सुख नहीं है । अनन्तता, पूर्णता या शाश्वतता ही सुख है, अतः उसी की जिज्ञासा करनी चाहिए ।'
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इस प्रकार हम देखते हैं कि न केवल जैन परम्परा में, वरन् बौद्ध और वैदिक परम्पराओं में भी सुख को अपने विशिष्ट अर्थ में नैतिक जीवन का साध्य माना गया है । अतः कहा जा सकता है कि जैन विचारणा और सामान्य रूप से अ य सभी भारती विचारणाओं में नैतिक साध्य के रूप में सुख को स्वीकार किया गया है और उसे शुभत्व का प्रमापक भी माना गया है, फिर भी यह स्मरण रखने की बात है कि भारतीय चिन्तन में सुख को ही एकमात्र नैतिक जीवन का साध्य नहीं कहा गया है । सुख हमारी तात्त्विक प्रकृति के अंग के रूप में साध्य अवश्य है लेकिन इसके साथ ही हमारी तात्त्विक प्रकृति के अन्य पक्ष भी हैं जिन्हें अस्वीकार नहीं किया जा सकता है । सुखवाद की, जैन दर्शन के अनुसार, प्रमुख आलोचना यह है कि वह सुख को ही एकमात्र साध्य मानता है, जबकि चेतना के अन्य पक्ष भी समान रूप से नैतिक साध्य बनने की अपेक्षा रखते हैं । सुखवाद चेतना के मात्र अनुभूत्यात्मक पक्ष को स्वीकार करता है और उसके बौद्धिक पक्ष की अवहेलना करता है । यही उसका एकांगीपन है ।
जैन दार्शनिक सुखवाद को स्वीकार करते हुए भी बौद्धिक एवं ज्ञानात्मक पक्ष की अवहेलना नहीं करते और इस रूप में वे सुखवादी विचारणा के तत्त्वों को स्वीकार करते हुए भी आलोचना के पात्र नहीं बनते हैं ।
अरस्तू का मात्रा का मानक और जैन दर्शन -- पाश्चात्य विचारकों में अरस्तू का नाम अग्रगण्य है । अरस्तू के नैतिक दर्शन में शुभ का प्रतिमान 'स्वर्णिम माध्य' (Golden Mean) माना गया है । अरस्तू के अनुसार प्रत्येक गुण अपनी मध्यावस्था ही नैतिक शुभ होता है । उसने सद्गुण और दुर्गुण की कसौटी के रूप में इसी 'स्वर्णिम साध्य' को स्वीकार किया है । सद्मार्ग मध्यममार्ग है । उदाहरणार्थ साहस सद्गुण है जो कायरता और उग्रता की मध्यावस्था है । कायरता और सदैव संघर्षरत रहना दोनों ही अवगुण हैं । 'आदर्श' इन दोनों के मध्य में है, जिसे 'साहस' कहा जाता है । इसी प्रकार सांसारिक सुखों में अनुर्सत के रूप में अत्यधिक भोग-विलास और विरक्ति के रूप में तप-मार्ग या देह-दण्डन दोनों अनुचित हैं । संयम दोनों की मध्यावस्था के रूप में सद्गुण है । यद्यपि मात्रात्मक मानक की इस धारणा के सम्बन्ध में कुछ अपवाद स्वयं अरस्तू ने भी स्वीकार किये हैं ।
जैन दर्शन में अरस्तू के इस मात्रात्मक मानक दृष्टिकोण का समर्थन आचार्य गुणभद्र के आत्मानुशासन नामक ग्रन्थ में भी मिलता है । वे लिखते हैं कि सुख का अनुभव करना बुरा नहीं है, लेकिन उसके पीछे जो वासना है, वह बुरी है । सुख१. छान्दोग्य उपनिषद, ७ २३ १.
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