________________
भारतीय और पाश्चात्य नैतिक मानदण्ड के सिद्धान्त
१२९
भोग से कोई पाप नहीं होता, पाप होता है सुख भोग की वासना के कारण क्योंकि यह वासना सम्यक् दृष्टिकोण की घातक है । वासना से सम्यक्त्व का नाश होता है, जबकि सम्यक्त्व सुख का हेतु है । वासना मात्रातिक्रमण की ओर ले जाती है और यही मात्रातिक्रमण पाप है । आचार्य इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए मिठाई का उदाहरण देते हैं । वे कहते हैं कि 'अजीर्ण' मिष्टान्न भोजन से नहीं होता, वह होता है उसकी मात्रा का अतिक्रमण करने से, इस प्रकार जैन दर्शन में भी अरस्तू के समान मात्रा के मानक का विचार उपलब्ध है ।
१
हम इसी आधार पर यह निष्कर्ष उपस्थित कर सकते हैं कि प्राकृतिक क्षुधाओं, उदात्त भावनाओं और संवेगों का दमन नहीं करना चाहिए, वरन् उन्हें इस रूप में नियोजित करना चाहिए कि वे पूर्ण नैतिक जीवन की दिशा में आगे ले जायें । २. विकासवाद और जैन दर्शन
विका - वादी आचारदर्शन नैतिकता को एक प्रक्रिया के रूप में देखते हैं । उनकी दृष्टि में नैतिक प्रत्यय और उनके अर्थ सापेक्ष हैं । सापेक्ष नैतिकता विकासवादी अ चारदर्शन की महत्त्वपूर्ण मान्यता है । विकासवाद के अनुसार नैतिकता का अर्थ है अपने अस्तित्व को बनाये रखना और विकास की प्रक्रिया में सहयोगी होना । इसके अनुसार शुभ की व्याख्या यह है कि जो विकास की प्रक्रिया में सहायक है वह शुभ है और जो सहायक नहीं है वह अशुभ है । विकासवादी दर्शन में सुख को नैतिक जीवन का परम साध्य स्वीकार किया गया है, लेकिन उसके साथ ही वैयक्तिक एवं जातीय जीवन के अस्तित्व को भी महत्त्वपूर्ण माना गया है । स्पेन्सर कहते हैं कि जीवन का अन्तिम साध्य आनन्द है, लेकिन जीवन का निकटवर्ती साध्य जीवन की लम्बाई और चौड़ाई हैं । २ वे कहते हैं कि क्रम विकास की गति सदैव आत्मरक्षण की दिशा में होती है और वह उस सीमा को उस समय प्राप्त होता है जब जीवन लम्बाई और चौड़ाई दोनों में ही अधिकतम हो जाता है । 3 विकासवादी दर्शन में जो प्रक्रियाएं जीव को वातावरण से समायोजित करती हैं और जीवन की लम्बाई और चौड़ाई में वृद्धि करती हैं, वे ही नैतिक हैं । इस प्रकार विकासवादी दर्शन में प्रमुखरूप से तीन दृष्टिकोण परिलक्षित होते हैं
१. जीवन का रक्षण,
२. परिवेश से समायोजन, और
३. विकास की प्रक्रिया में सहगामी होना ।
जैन दर्शन विकासवाद के कुछ तथ्यों को स्वीकार करता है । जीवन को परममूल्य मानने की धारणा जैन दर्शन में भी स्वीकृत है । आचारांगसूत्र में कहा गया है कि सभी को वन एवं प्राण प्रिय हैं । * दशवैका लिकसूत्र में भी कहा गया है कि
१. आत्मानुशासन, २८. २. उद्धृत - नीतिशास्त्र, पृ० ९२.
३. नीतिशास्त्र, पृ० ९९. ४. आचारांग, १/२/३.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org