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भारतीय और पाश्चात्य नैतिक मानदण्ड के सिद्धान्त
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अभाव हो, जहाँ समस्त आत्मगुण अनाबाध रूप से प्रकट हों, वही अनाबाध सुख है।
यदि हम जैन नैतिकता को किसी विशेष अर्थ में सुखवाद के नाम से पुकारना उचित समझें तो उसके नैतिक आचरण का चरमादर्श इस अनाबाध सुख की उपलब्धि ही है, यह मानना होगा । अनाबाध सुख वस्तुतः आध्यामिक आनन्द की वह अवस्था है जिसमें हम शुद्ध एवं पूर्ण आत्मस्वरूप का साक्षात्कार करते हैं । दुःख का कारण तनाव है और तनाव का कारण राग-द्वेष है । जब आत्मा राग-द्वेष रूप तनाव को समाप्त कर देता है और अर्हत् या वीतराग अवस्था को प्राप्त कर लेता है तो उसे इस वास्तविक सुख का लाभ होता है जो वासनात्मक सुखों की अपेक्षा अनन्त गुना अधिक है । जैनागमों में कहा गया है कि वासनाओं की पूर्ति से प्राप्त होने वाले लौकिक सुख वीतराग के सुख का अनन्तवाँ भाग भी नहीं होते अर्थात् वीतराग के सुख की अपेक्षा लौकिक सुख न कुछ के बराबर है ।
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सुखवाद के अनुसार भी सुख मन या चित्त की शान्त भावना है । यह जितनी प्रगाढ़ चिरकालीन तथा निरन्तर हो उतना ही सुख अधिक होता है । वैराग्य ( वीतराग दशा ) मनुष्य की ऐसी ही प्रगाढ़ चिरकालीन और निरन्तर शान्तवृत्ति है । यह वृत्ति कर्म करने से नहीं, किन्तु कर्म का परित्याग करके एकान्त में चित्त को एकाग्र करने से आती है । अतएव सुखवाद की तार्किक पराकाष्ठा यह है कि वैराग्य ( वीतराग दशा ) ही एकमात्र श्रेय है ।" 3
महाभारत में भी वासनामूलक एवं ऐन्द्रिक सुखों को अत्यन्त निम्न कोटि का कहा गया है । महाभारत उन ऐन्द्रिक तथा वासनात्मक सुखों को जो दुःखप्रसूत हैं या जिनका अन्त दु:ख में होता है त्याज्य ठहराता है । सभी ( ऐन्द्रिक या वासनात्मक ) सुख या तो दुःखान्त होते हैं या दुःख से उत्पन्न होते हैं । अतः जिसे शाश्वत सुख की अपेक्षा है उसे आदि और अन्त में दुःखरूप इन सुखों का त्याग कर देना चाहिए । यही नहीं, महर्षि वेदव्यास कहते हैं कि 'बिना त्याग किये सुख नहीं मिलता, बिना त्याग किये परमतत्त्व की उपलब्धि भी नहीं होती । बिना त्याग के अभय की प्राप्ति भी नहीं होती । अतः सब कुछ त्याग करके सुखी हो जाओ ।'
जैन दर्शन की भाँति महाभारत में भी लगभग वैसे ही शब्दों में कहा गया है। कि वासनाओं की पूर्ति से होनेवाले कामसुख या भौतिकसुख तथा दिव्य लोकों के महान् सुख भी वीततृष्ण व्यक्ति के सुखों की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं हैं । ६ जैन विचार के सुख के पूर्ण या अनाबाध स्वरूप को ही छान्दोग्योपनिषद्
१. अभिधानराजेन्द्रकोश, खण्ड ७, पृ० १०१८.
२. अध्यात्मतत्वालोक, पृ० ६३०.
३. नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण, पृ० २३१.
महाभारत, शान्तिपर्व, ५५.
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५. वही, ६५८३.
६. महाभारत, शान्तिपर्व, ६५०३; उद्धृत-नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण, पृ० २३०.
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