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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
सब सुख दुःख के प्रतिकार के निमित्त होते हैं, मात्र सुख का अभिमान उत्पन्न करते हैं वे वास्तविक सुख नहीं कहे जा सकते ।' सुख दुःख के अस्थायी प्रतिकार हैं, वे मात्र सुखाभास हैं; वास्तविक सुख नहीं हैं। वैषयिक सुखों की तुलना खाज के खुजाने से उत्पन्न सुख से की जाती है । जैसे खाज खुजाने से उत्पन्न सुख का आदि और अन्त दोनों दुःखपूर्ण हैं, वैसे ही वैषयिक सुखों का आदि और अन्त दोनों ही दुःखपूर्ण हैं, अतः वे वास्तविक सुख नहीं हो सकते ।
जैन विचारणा के अनुसार निष्क्रमण अवस्था में व्यक्ति सब कुछ त्याग देता है, लेकिन त्याग उसी का किया जा सकता है जो 'पर' है, 'स्व' का त्याग नहीं किया 'जा सकता । अत: सब कुछ त्याग करने के पश्चात् जो शेष रहता है वह है उसका परिशुद्ध 'स्व' । वही अपना है । पाश्चात्य विचारक मैकेंजी भी कहते हैं कि शुद्ध नैतिक दृष्टिकोण से किसी भी व्यक्ति का किसी भी सम्पत्ति पर कोई अधिकार नहीं है, सिवाय उसके जिसने उसे अपने अस्तित्व का अंग बना लिया है । जैन विचारक यहाँ यह कहना चाहेंगे कि वस्तुतः किसी भी बाह्य सत्ता को अपना अंग बनाया ही नहीं जा सकता । अपने अस्तित्व को छोड़कर शेष सब बाह्य है । जर्मन विचारक जी० सीमेल कहते हैं, 'शुद्ध अर्थ में अपने अस्तित्व के अतिरिक्त मेरा कुछ भी नहीं है ।" 3 अतः जो अपना नहीं है, उसे छोड़ देना उससे निवृत होना निष्क्रमण सुख है और जो स्व है उसे पा लेना अस्तित्व सुख है । इसे हम शुद्धात्मदशा कह सकते हैं जिसमें आत्मा विभावदशा से स्वभावदशा में आ जाती है और आत्मा के निजगुण प्रकट हो जाते हैं । यही शुद्ध आत्मदशा अस्तित्वसुख है । वस्तुतः निष्क्रमणसुख और अस्तित्वसुख एक ही अवस्था के दो पहलू हैं-- पहला निषेधात्मक पहलू है, दूसरा भावात्मक पहलू । जो स्वभाव नहीं है उसे छोड़ने से जो सुख होता है, वह निष्क्रमणसुख है और जो 'स्व' है उसके 'पर' के अभाव में शुद्ध रूप में रहने से जो सुख मिलता है वह अस्तित्वसुख है । 'पर' भाव को छोड़ना निष्क्रमणसुख है और 'स्व' - स्वभाव में रमण करना अस्तित्वसुख है । निष्क्रमण, निस्पृहता, या वीतरागता या अनासक्ति के द्वारा 'पर' - भाव को छोड़ने और 'स्व' - स्वभाव में रमण करने का जो सुख है उसे जैन दर्शन के अनुसार उच्चतम नैतिक या चारित्रिक सुख कहा जा सकता है । यद्यपि यह उच्चतम नैतिक सुख है तथापि यह भी साध्य नहीं है, साधन ही है । नैतिक जीवन स्वयं एक साधन है । नैतिक जीवन का साध्य है अबाध सुख । यही सर्वोच्च सुख है, यही नै तिकता का आदर्श है । अनाबाध सुख वास्तविक पूर्णता है, मुक्ति है जिसमें जन्म, जरा एवं मरण आदि समस्त बाधाओं का
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१. अभिधानराजेन्द्रकोश, खण्ड ७, पृ० १०१८.
२. नीतिप्रवेशिका, पृ० २५१ की टिप्पणी.
३. वही, पृ० २५१
४. अभिधानराजेन्द्रकोश, खण्ड ७, पृ० १०१८.
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