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भारतीय और पाश्चात्य नैतिक मानदण्ड के सिद्धान्त
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के लिए इन्द्रियसुखों का परित्याग आवश्यक है। एक दूसरी दृष्टि से शुभ शब्द का अर्थ कल्याणकारी करने पर कामसुख और भोगसुख को वैयक्तिक और शुभभोग को सामाजिक या लोक कल्याणकारी कार्यों के रूप में स्वीकार किया जा सकता है । इस स्थिति में जैन विचारणा के अनुसार वैयक्तिक सुखों का परित्याग समाज के कल्याण के लिए किया जाना चाहिए, यही सिद्ध होता है। वैयक्तिक सुखभोग का लोककल्याण के, हेतु परित्याग किया जाना चाहिए. यह मानकर जैन विचारणा उपयोगितावादी दृष्टिकोण के निकट आ जाती है। लेकिन बौद्धिक सुख और लोक कल्याणकारी कार्यों के सम्पादन में रहा हुआ सुख भी सर्वोपरि नहीं रहता, जबकि आरोग्य ( स्वास्थ्य ) एवं जीवन का प्रश्न उपस्थित हो जाता है । यद्यपि बौद्धिक सुख . अनुसरणीय है तथापि स्वास्थ्य और जीवन की सुरक्षा के निमित्त उनका भी परित्याग आवश्यक है। ___काम-भोग, बौद्धिक सुखा और स्वास्थ्य एवं जीवन सम्बन्धी सुखों की आकांक्षाएँ अपने में साध्य नहीं हैं । आकांक्षाएँ सन्तोष के लिए होती हैं, अतः सन्तोषजनित सुख इन सब आकांक्षाजनित सुखों से श्रेष्ठ है। क्योंकि जिन सुखों के मूल में आकांक्षा या इच्छा होती है, वे सुख दुःख प्रत्युत्पन्न हैं । आकांक्षा या इच्छा एक मानसिक तनाव है और सभी तनाव दुःखद होते हैं। अतः दुःख प्रत्युत्पन्न सुख सापेक्ष रूप में सुख होते हुए भी निम्नस्तरीय सुख ही हैं। लेकिन सन्तोषवृत्ति का सुख ऐसा है जिसके कारण इच्छा या तनाव समाप्त हो जाता है। उसका अन्त सुख रूप ही है, अतः उसके लिए इन सभी प्रकार के सुखों का परित्याग किया जा सकता है। लेकिन सन्तोषसुख भी अपने में साध्य नहीं है, सन्तोष से बड़ा सुख निष्क्रमण ( त्याग ) का है । सन्तोष में इच्छा का अभाव नहीं है, लेकिन निष्क्रमण में इच्छा, ममत्व या आसक्ति का अभाव है । सन्तोष और इच्छा के अभाव की पूर्णता आसक्ति के अभाव में ही होती है । सन्तोष किया जाता है, लेकिन अनासक्ति होती है। सन्तोष प्रयासजन्य है, .. अनासक्ति स्वभावजन्य है । अतः एक सन्तोषी व्यक्ति की अपेक्षा भी अनासक्त वीतराग पुरुष का सुख कहीं अधिक होता है। कहा भी गया है कि न तो अपार सम्पत्तिशाली पुरुष ही सुखी है, न अधिकारसम्पन्न सेनापति ही; पृथ्वी का अधिपति राज एवं स्वर्ग के निवासी देव भी एकान्त रूप से सुखी नहीं हैं; जगत् में यदि कोई एकान्त रूप से सुखी है, तो वह है निस्पृह, वीतराग साधु । चक्रवर्ती और देवराज इन्द्र के सुखों की अपेक्षा भी, लोक-व्यापार से निवृत निस्पृह श्रमण अधिक सुखी है।
स्वाभाविक तौर पर यह प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यों कहा गया कि निस्पृह वीतराग साधु ही सर्वाधिक सुखी है ? उसका सुख ही क्यों उच्च कोटि का सुखा है ? जैनाचार्यों ने उक्त प्रश्न का उत्तर निम्न शब्दों में दिया है, निस्पृहता के अतिरिक्त शेष १. अभिधानराजेन्द्रकोश, खण्ड ७, पृ० १०१७. २. मनुस्मृति, ४।१२. ३. नित्यस्मरण, पृ० ४. ४. अभिधानराजेन्द्रकोश, खण्ड ७, पृ० १०१८.
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