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१२४ - जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
सुखवाद के यथार्थ स्वरूप को समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि जैन विचारकों की दृष्टि में 'सुख' शब्द का क्या अर्थ अभिप्रेत है। कठिनाई यह है कि जैनागमों की भाषा प्राकृत है। प्राकृत 'सुह' शब्द के संस्कृत भाषा में 'सुख' और 'शुभ' ऐसे दो रूप बनते हैं । दूसरे, जैनागमों में विभिन्न स्थलों पर 'सुह' भिन्न-भिन्न अाँ में प्रयुक्त हुआ है। यों प्रसंग के अनुकूल अर्थ का निश्चय करने में कोई कठिनाई नहीं होती।
जैनाचार्यों ने 'सुख' दस प्रकार के माने हैं'---(१) आरोग्यसुख, (२) दीर्घायुष्यसुख, (३) सम्पत्तिसुख, (४) कामसुख, (५) भोगसुख, (६) सन्तोषसुख, (७) अस्तित्वसुख, (८) शुभभोगसुख, (९) निष्क्रमणसुख और (१०) अनाबाधसुख । - सख के इस वर्गीकरण को जैन दृष्टि से निम्नस्तरीय और उच्चस्तरीय सुखों के सापेक्ष आधार पर प्रस्तुत किया जाये तो उसका स्वरूप निम्न होगा-(१) सम्पत्तिसुख, (२) कामसुख, (३) भोगसुख, (४) शुभभोगसुख, (५) आरोग्यसुख, (६) दीर्घायुष्यसुख, (७) सन्तोषसुख, (८) निष्क्रमणसुख, (९) अस्तित्वसुख और (१०) अनाबाधसुख ।
सम्पत्ति या अर्थ गाईस्थिक जीवन के लिए आवश्यक है और सांसारिक सुखों के लिए कारणभूत होने से उसे 'सुख' कहा गया है । २ भारतीय विचारणा म चार पुरुषार्थों में अर्थ को एक पुरुषार्थ मानकर नैतिक दृष्टि से उसका महत्त्व अवश्य स्वीकार किय गया है, लेकिन सम्पत्ति अपने में साध्य नहीं है। वह तो मात्र साधन है। इसी लिए इसे नैतिकता का साध्य नहीं माना जा सकता । यद्यपि मम्मन सेठ के समान कुछ लोग होते हैं जिनके लिए धन या अर्थ ही साध्य बन जाता है, लेकिन जैन विचारणा में अर्थ या सम्पत्ति को सुख मानते हुए भी नैतिक परममूल्य के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है। यद्यपि सम्पत्ति को सुख मानकर उसके अपहार का निषेध अवश्य किया गया है, तथापि जैन दर्शन यह तो स्वीकार करता है कि सुख का चाहे निम्नस्तरीय ही रूप क्यों न हो, स्वाभाविक रूप से प्राणी के जीवन का साध्य होता है। लेकिन नैतिकता इस बात में नहीं है कि उस निम्नस्तरीय सुख के अनुसरण में उच्चस्तरीय सुखं का त्याग कर दिया जाय । साम्पत्तिक सुख का त्याग कामसुख एवं भोगसुख के लिए करना चाहिए, क्योंकि अर्थ काम और भोग का साधन है। इसी प्रकार काम और भोग का परित्याग शुभभोग के लिए करना चाहिए । यहाँ पर जैन दार्शनिक कामसुख और भोगसुख तथा शुभभोगसुख में अन्तर करते हैं। कामसुख और भोगसुख क्रमशः वासनात्मक और इन्द्रियसुखों के प्रतीक हैं और शुभभोग मानसिक सुखों का प्रतीक है। जैन विचारकों के मत में इन्द्रियसुखों की अपेक्षा मानसिक सुख श्रेष्ठ है, अतः मानसिक सुख या बौद्धिक सुख के अनुसरण १. सूत्रकृतांग, ७३७. २. अभिधानराजेन्द्रकोश, खण्ड ७, पृ० १०१८. ३. वही, पृ० १०१७.
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