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भारतीय और पाश्चात्य नैतिक मानदण्ड के सिद्धान्त
इन आधारों पर उपयोगितावाद के मुख्य सिद्धान्त इस प्रकार हैं
१. सुख प्राप्ति और दुःखमुक्ति केवल यह दो ही स्वतःसाध्य के रूप में काम्य हैं । अन्य सभी वस्तुए केवल इसीलिए काम्य हैं कि वे या तो सुखपूर्ण हैं या सुखवर्धक हैं, अथवा दुःखों का नाश करनेवाली हैं ।
२. जिस अनुपात में कोई कर्म सुख या दुःख देता है, उसी अनुपात में वह शुभ या अशुभ होता है ।
३. प्रत्येक व्यक्ति का सुख समान है । किसी एक व्यक्ति का सुख जितना काम्य है उतना ही दूसरे व्यक्ति का । अतः सुख की मात्रा को बढ़ाने की चेष्टा करनी चाहिए चाहे वह किसी का भी सुख हो ।
४. सर्वाधिक सुख का अर्थ है सुख की मात्रा में अधिक से अधिक संभाव्य वृद्धि । इसका अर्थ यह भी है कि सुख और दुःख को मापा जा सकता है ।
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५. परोपकारी होने का अर्थ है सामाजिक सुख या लोकोपयोगिता में वृद्धि करना । इसी प्रकार स्वार्थी होने का मतलब है सामाजिक सुख में कमी करना । १
इस तरह हम देखते हैं कि नैतिक सुखवाद की धारणा सुख को काम्य मानते हुए भी लोकहित या लोकमंगल को स्थान देती है ।
जैन आचारदर्शन में नैतिक सुखवाद के दोनों पक्ष अर्थात् सुखों की काम्यता एवं उपयोगिता ( लोकहित ) समाहित हैं जिनपर हम यहाँ विचार करेंगे ।
जैन आचारदर्शन में नैतिक सुखवाद के समर्थक कुछ तथ्य मिलते हैं । महावीर ने कई बार यह कहा है कि 'जिससे सुख हो वह करो । २ इस कथन के आधार पर यह फलित निकाला जा सकता है कि महावीर नैतिक सुखवाद के समर्थक थे । यद्यपि हमें यहाँ यह ध्यान में रखना चाहिए कि सुख शब्द का जो अर्थ महावीर की दृष्टि में था, वह वर्तमान सुख शब्द की व्याख्या से भिन्न था।
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एक अन्य दृष्टि से भी जैन नैतिकता को सुखवादी कहा जा सकता है । क्योंकि जैन नैतिक आदर्श मोक्ष आत्मा की अनन्त सौख्य की अवस्था है और इस प्रकार जैन नैतिकता सुख के अनुसरण करने का आदेश देती है । इस अर्थ में भी वह सुखवादी है, यद्यपि यहाँ पर उसका सुख की उपलब्धि का नैतिक आदर्श भौतिक सुख की उपलब्धि का आदर्श नहीं है, वरन् वह तो परमानन्द की अवस्था की उपलब्धि का आदर्श है ।
सामान्य अर्थ में सुख-दुःख सापेक्ष शब्द हैं, एक विकल्पात्मक स्थिति है । दुःख के विपरीत जो है उसकी अनुभूति सुख है, या सुख दुःख का अभाव है। जैन दर्शन 'निर्वाण' में जिस अनन्त सौख्य की कल्पना करता है, वह निर्विकल्प सुख है । वस्तुत: 13 जैन दृष्टि में निर्विकल्प सुख ही वास्तविक सुख है ।
१. नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण, पृ० १६८.
२. अहासुहं देवाणुपियं । -उपासकदशांगसूत्र, १।१२.
३.
बृहत्कल्पभाष्य, ५७१७.
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