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________________ १२२ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन इस आधार पर कोई यह आक्षेप कर सकता है कि ऐसी अवस्था में वह अपनी सुखवादी धारणा से दूर हो जाती है। जैन नैतिकता इस आक्षेप के प्रत्युत्तर में यह कहती है कि उसपर इस आक्षेप का आरोपण उसी दशा में होगा कि जबकि हम सुखों के भौतिक स्वरूप की ओर ही ध्यान देंगे। लेकिन जैन नैतिकता तो सुखों के आधिभौतिक और आध्यात्मिक स्वरूप को भी स्वीकार करती है। पाश्चात्य धारणा की मलभत भ्रान्ति यही है कि वह सुखों के विभिन्न स्तरों पर बल नहीं देती है और सुखों के भौतिक स्वरूप से ऊपर उठकर उनके आध्यात्मिक स्वरूप की ओर नहीं बढ़ती है । सुखों में पारस्परिक संघर्ष तो उनके भौतिक स्वरूप तक ही सीमित है। जैन आचारदर्शन और नैतिक सुखवाद--नैतिक सुखवाद की विचारधारा यह मानकर चलती है कि सुख का अनुसरण करना चाहिए या सुख ही वांछनीय है । नैतिक सुखवाद के विचारकों में मिल प्रभृति कुछ विचारक नैतिक सुखवाद को मनोवैज्ञानिक सुखवाद पर आधारित करते हैं। मिल का कहना है कि कोई वस्तु या विषय काम्य है, इसका प्रमाण यह है कि लोग वस्तुतः उसकी कामना करते हैं। सामान्य सुख काम्य है, इसके लिए इसे छोड़कर कोई प्रमाण नहीं दिया जा सकता कि प्रत्येक मनुष्य सुख की कामना करता है। लेकिन सुखवाद को मनौवैज्ञानिक आधार पर खड़ा करने का मिल का यह प्रयास तार्किक दृष्टि से दूषित ही है। यदि सभी मनुष्य स्वभावतः सुख की कामना करते हैं तो फिर 'सुख की कामना करनी चाहिए' इस कथन का कोई अर्थ नहीं रह जाता, जबकि नैतिक आदेश के लिए 'चाहिए' आवश्यक है। लेकिन मनोवैज्ञानिक सुखवाद इस 'चाहिए' के लिए कोई अवकाश नहीं छोड़ता। इसी कारण सिजविक तथा समकालीन विचारकों में ड्यूरेंट ड्रेक आदि ने सुखवाद को विशुद्ध नैतिक आधार पर खड़ा किया है। फिर भी उपर्युक्त सभो विचारकों के लिए सुख काम्य है और उनकी दृष्टि में नैतिक आदेश है—सुख के लिए प्रयत्न करना चाहिए। नैतिक सुखवादी विचारधारा की दूसरी मान्यता यह भी है कि वस्तुतः जो सुख काम्य है वह वैयक्तिक नहीं वरन् सामान्य सुख है । यह धारणा उपयोगितावाद के नाम से भी जानी जाती है । उपयोगितावाद की विशेषताएं निम्नलिखित हैं... १. अधिक से अधिक सुख २ उच्चतम सुख ( ऐन्द्रिक सुखों की अपेक्षा मानसिक सुख उच्च कोटि का माना गया है) ३. अधिक से अधिक संख्या का अधिक से अधिक सुख ४. बहुसंख्यकों का सुख ५. सार्वभौम एवं सामान्य सुख ६. समाजिक सुख १. नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण, पृ० १६१ पर उद्धृत. . २. कण्टेम्पररि एथिकल थ्योरीज, पृ० १९६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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