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________________ भारतीय और पाश्चात्य नैतिक मानदण्ड के सिद्धान्त १२१ किया है । महाभारत में कहा गया है कि सभी सुख चाहते हैं और दुःख से उद्विग्न होते हैं ।' छान्दोग्य उपनिषद् में भी इसी सुखवादी दृष्टिकोण का समर्थन है । उसमें कहा गया है कि जब मनुष्य को सुख प्राप्त होता है तभी वह कर्म करता है। बिना सुख मिले कोई कर्म नहीं करता । अतः सुख की ही विशेष रूप से जिज्ञासा करना चाहिए | चाणक्य ने भी मनुष्य को स्वार्थी माना है और उसके स्वार्थ को नियन्त्रित करने के लिए राज्य सत्ता को अनिवार्य माना है । उसके अनुसार मनुष्य स्वभावतः सुख की प्राप्ति का प्रयत्न करता है । उद्योतकर ने मानव मनोविज्ञान के आधार पर सुख की प्राप्ति और दुःख की निवृत्ति को मानव-जीवन का साध्य बताया है । 3 भारतीय परम्परा में सुखवाद की धारणा की अभिव्यक्ति प्राचीन समय से ही रही है, लेकिन चार्वाक दर्शन को छोड़कर अन्य भारतीय दर्शनों ने वैयक्तिक सुख के स्थान पर सदैव सार्वजनिक सुख की ही कामना की है। भारतीय साधक प्रतिदिन यह प्रार्थना करता है कि सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत् ।। ( यजुर्वेद, शान्तिपाठ ) पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक सुखवाद से तुलना करने पर हमें इसकी एक विशिष्टता का परिचय मिलता है । पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक सुखवाद अपने सिद्धान्त का मनोवैज्ञानिक आधार पाकर मात्र यही निष्कर्ष निकालता है कि व्यक्ति के लिए सुख का अनुसरण करना अनिवार्य है । लेकिन सुख के सम्पादन की इस स्पर्धा में प्रत्येक प्राणी का सुख दूसरे प्राणियों के सुखों के नाश पर निर्भर हो तो क्या करना नैतिक होगा ? इस प्रश्न का उत्तर वहाँ नहीं मिलता । सुखों का अनुसरण जितना स्वाभाविक है, उतना ही स्वाभाविक यह भी है कि पाश्चात्य परम्परा में जिन भौतिक सुखों के अनुकरण का समर्थन किया गया है, उनको लेकर प्राणियों के हितों में ही परस्पर संघर्ष होता है । यदि मेरा सुख किसी दूसरे व्यक्ति के सुख के नाश पर निर्भर हो तो क्या मेरे लिए उस सुख का अनुकरण उचित या नैतिक होगा ? यदि स्वार्थसुखवाद के सिद्धान्त को मानकर सभी लोग दूसरे के सुखों का हनन करते हुए स्वयं के सुख का सम्पादन करने में लग जायें तो न तो समाज में सुख और शान्ति बनी रहेगी और न व्यक्ति ही सुख प्राप्त कर पायेगा, क्योंकि दूसरे व्यक्ति भी अपना सुख भोगते हुए उसके सुख में बाधा डालेंगे । जैन नैतिकता सुख के अनुसरण की मान्यता को स्वीकार करते हुए व्यक्ति को यह तो अधिकार प्रदान करती है कि वह स्वयं के सुख का अनुसरण करे, लेकिन उसे अपने वैयक्तिक सुख की उपलब्धि के प्रयास में दूसरे के सुखों एवं हितों का हनन करने का अधिकार नहीं है । यदि तुम्हारे सुख के अनुसरण के प्रयास में दूसरे के सुख का हनन अनिवार्य है तो तुम्हें ऐसे सुख का अनुसरण नहीं करना चाहिए | किन्तु १. महाभारत, शान्तिपर्व, १३९/६१. २. छान्दोग्य उपनिषद, ७/२२ १. ३. दृष्टव्य - न्यायवार्तिक ( वाराणसी संस्करण ), पृ० १३; उद्धृत - नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण, पृ० १५१. ८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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