________________
भारतीय और पाश्चात्य नैतिक मानदण्ड के सिद्धान्त .
११९
९. सम्यग्ज्ञान-नैतिक विवेक । १०. सम्यग्दर्शन--श्रद्धा एवं आत्मविश्वास ।
यह क्रम अपने पूर्णतावादी दृष्टिकोण के आधार पर उन दोषों से ग्रसित भी नहीं होता जो दोष मार्टिन्यू के नैतिक दर्शन में हैं।
आन्तरिक विधानवाद के विरोध में साध्यवादी और विकासवादी सिद्धान्त आते हैं । अगले पृष्ठों में हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि उनका जैन दर्शन के साथ कितना साम्य है। ७. प्रयोजनात्मक अथवा साध्यवादी सिद्धान्त
नैतिक प्रतिमान के दूसरे प्रकार के सिद्धान्तों को प्रयोजनात्मक या साध्यवादी सिद्धान्त कहते हैं। इन सिद्धान्तों के अनुसार किसी कर्म की नैतिकता का निर्णय उसके साध्य, प्रयोजन, परिणाम, आदर्श, परमशुभ अथवा मूल्य के आधार पर होना चाहिए। लेकिन प्रयोजनवादी विचारक कर्म के वास्तविक लक्ष्य के विषय में एकमत नहीं हैं। इन विचारकों ने विभिन्न साध्य माने हैं और इस कारण साध्यवादियों के भी कई सम्प्रदाय हैं, उनमें (१) सुखवाद, (२) विकासवाद, (३) बुद्धिपरतावाद, (४) पूर्णतावाद एवं (५) मूल्यवाद प्रमुख हैं। १. सुखवाद
सुखवाद के अनुसार कर्म का साध्य सुख की प्राप्ति अथवा तृप्ति है। वही कर्म शुभ है जो हमारी इन्द्रियपरता ( वासनाओं) को सन्तुष्ट करता है और वह कर्म अशुभ है जिससे वासनाओं की पूर्ति अथवा सुख की प्राप्ति नहीं होती। सुखवा दियों के भी अनेक उपसम्प्रदाय हैं। उनमें मनोवैज्ञानिक सुखवाद और नैतिक सुखवाद प्रमुख हैं। नैतिक सुखवादी परम्परा में भी अनेक उपसम्प्रदाय हैं। सर्वप्रथम मनोवैज्ञानिक सुखवाद और जैन आचारदर्शन के पारस्परिक सम्बन्धों के बारे में विचार करना उचित होगा।
मनोवैज्ञानिक सुखवाद और जैन आचारदर्शन-मनोवैज्ञानिक सुखवाद एक तथ्यपरक सिद्धान्त है जिसके अनुसार यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि व्यक्ति सदैव सुख के लिए प्रयास करता है । जैन आचारदर्शन भी यह मानता है कि समस्त प्राणिवर्ग स्वभाव से ही सुखाभिलाषी है। दशकालिकसूत्र स्पष्ट रूप से प्राणिवर्ग को परम ( सुख ) धर्मी मानता है ।' टीकाकारों ने परम शब्द का अर्थ सुख करते हुए इस प्रकार व्याख्या की है, "पृथ्वी आदि स्थावर प्राणी और द्वीन्द्रिय आदि त्रस प्राणी, इस प्रकार सर्व प्राणी परम अर्थात् सुखधर्मी हैं, सुखाभिलाषी हैं।"२ सुख की अभिलाषा करना प्राणियों का नैसर्गिक स्वभाव है। आचारांगसूत्र में भी कहा है कि 'सभी प्राणियों को सुख प्रिय है, अनुकूल है और दुःख अप्रिय है, प्रतिकूल है ।'3 १. सव्वेपाणा परमाहम्मिआ-दशवैकालिक, ४।९. २. दशवकालिक टीका, पृ० ४६. ३. सवे सुहसाया दुक्खपडिकूला ।-आचारांग १।२।३२८१;
तुलनीय-दुःखादुद्विजते सर्वः सर्वस्य सुखमीप्सितम् । महाभारत, शान्तिपर्व, १३९-६१.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org