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________________ ११८ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन इस प्रकार, मार्टिन्यू के अनुसार कर्म-स्रोतों के इस तारतम्य में श्रद्धा सर्वोच्च नैतिक गुण है और गौण विकर्षण अर्थात् अविश्वास, मात्सर्य और सन्देहशीलता सबसे निम्नतम दुर्गुण है। श्रद्धा मात्र गुण है और मात्सर्य, द्वेष आदि मात्र दुर्गुण हैं। शेष सभी कर्मस्रोत इन दोनों के बीच में आते हैं और उनमें गुण और अवगुण के विभिन्न प्रकार के समन्वय हैं। नैतिक दृष्टि से वही कर्म शुभ होगा जो उच्च कर्म प्रेरकों से उत्पन्न होगा। जो कर्म जितने अधिक निम्न कर्मस्रोत से उत्पन्न होगा वह उतना ही अधिक अनैतिक होगा । संक्षेप में, मार्टिन्य के यही नैतिक विचार हैं। मार्टिन्यू के नैतिक दर्शन की तुलना जैन परम्परा से की जा सकती है। जैन परम्परा के अनुसार कर्मप्रेरक ये हैं-(१) राग, (२) द्वेष, (३) क्रोध, (४) मान, (५) माया, (६) लोभ, (७) भय, (८) परिग्रह, (९) मैथुन, (१०) आहार, (११) लोक, (१२) धर्म और (१३) ओघ । इनमें राग और द्वेष दो कर्मबीज हैं, और क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषाय हैं, तथा शेष संज्ञाएँ हैं। यदि हम मार्टिन्यू के उपर्युक्त वर्गीकरण से तुलना करें तो इनमें से अधिकांश वृत्तियाँ उसमें मौजूद हैं। यही नहीं, यदि हम चाहें तो बन्धन की तीव्रता की दृष्टि से इनका एक क्रम भी तैयार कर सकते हैं जिसमें द्वेष सबसे निम्न और धर्म सबसे उच्च होगा, और ऐसी स्थिति में हम यह भी पायेंगे कि जैन दर्शन का वह वर्गीकरण मार्टिन्यू के उपर्युक्त तारतम्य से भी काफी समानता रखेगा। क्रम की दृष्टि से इन्हें इस प्रकार रखा जा सकता है-(१) द्वेष, (२) राग, (३) लोभ, (४) मान, (५) माया-कपटवृत्ति, (६) क्रोध, (७) ओघ, (८) भय, (९) परिग्रह, (१०) मैथुन, (११) आहार, (१२) लोक--सामाजिकता और (१३) धर्म । कुछ मतभेदों को छोड़कर यह क्रम-व्यवस्था मार्टिन्यू के कर्मस्रोत के नैतिक तारतम्य से काफी निकट है। एक अन्य अपेक्षा से भी मार्टिन्यू के कर्मस्रोत के नैतिक तारतम्य की तुलना जैन आचारदर्शन से की जा सकती है । यदि हम कर्मप्रेरकों के रूप में मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन, मिथ्याचारित्र, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र तथा आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञाओं को स्वीकार करें तो भी बन्धन की तीव्रता की दृष्टि से एक क्रम तैयार किया जा सकता है जो मार्टिन्यू के पूर्वोक्त तारतम्य के काफी निकट होगा । वह क्रम इस प्रकार होगा १. मिथ्यादर्शन--सन्देहशीलता आकांक्षा एवं अश्रद्धा । २. मिथ्याज्ञान-नैतिक विवेक एवं बुद्धि का अभाव । ३. मिथ्याचारित्र-क्रोध, मान, माया और लोभ के कर्मप्रेरक । ४. भयवृत्ति-भय से उत्पन्न कर्म ।। ५. परिग्रह-संचय की वृत्ति एवं आसक्तिभाव । ६. मैथुन-ऐन्द्रिक सुखों की इच्छा एवं यौनप्रवृत्तियाँ । ७. आहार-शरीर-रक्षा एवं क्षुधा निवृत्ति की क्रियाएँ । ८. सम्यक्चारित्र-सदाचरण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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