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________________ भारतीय और पाश्चात्य नैतिक मानदण्ड के सिद्धान्त ११७ वाद से ही किया है, फिर भी उन्होंने उसे सुदृढ़ मनोवैज्ञानिक आधारों पर स्थापित करने का प्रयास किया है। मार्टिन्यू के अनुसार, अन्तरात्मा ही शुभाशुभ का निर्णायक है । वह शुभाशुभ का विधान नहीं करता है, वरन उस विधान को दिखाता है जो कर्मों को शुभाशुभ बनाता है। उसके अनुसार, अन्तरात्मा कर्मों के अच्छे-बुरे तारतम्य का मात्र द्रष्टा है । सभी कर्मों के स्रोत होते हैं और इन स्रोतों में ही उनके अच्छे-बुरे तारतम्य का एक विधान है। मार्टिन्यू के अनुसार, कर्मप्रेरक दो प्रकार के हैं--(१) प्राथमिक और (२) गौण । प्राथमिक कर्मप्रेरक चार प्रकार के हैं(1) प्राथमिक प्रवर्तक, जिनमें क्षुधा, मैथुन एवं पाशविक सक्रियताएँ अर्थात आराम की प्रवृत्ति हैं, (२) प्राथमिक विकर्षण, जिनमें द्वेष, क्रोध और भय समाहित हैं, (३) प्राथमिक आकर्षण, यह रागभाव या आसक्ति है, इसमें वात्सल्य ( पुत्रषणा ), समाजप्रेम ( लोकषणा ) और करुणा या सहानुभूति के तत्त्व समाहित हैं, (४) प्राथमिक भावनाएँ, जिनमें जिज्ञासा, विस्मय और श्रद्धा का समावेश है। ये सत्य, सुन्दर और शिव ( कल्याण ) की ओर प्रवृत्त करते हैं । ये ज्ञान, अनुभूति और कर्म के प्रेरक हैं । दूसरे गौण कर्मप्रेरक भी चार प्रकार के हैं--(१) गौण प्रवृत्तियाँ, जिनमें स्वाद प्रियता, कामुकता, लोभ और मद समाहित हैं, (२) गौण विकर्षण, इनमें मात्सर्य, प्रतिकार और शंकाशीलता समाविष्ट हैं (३) गौण आकर्षण, इनमें स्नेह, सामाजिकता और दयाभाव का समावेश है, (४) गौण भावनाएँ, इनमें सत्याराधना, सौन्दर्योपासना और धर्मनिष्ठा समाहित हैं। . मार्टिन्यू के अनुसार, नैतिक दृष्टि से उपर्युक्त सभी कर्म-स्रोत समान नैतिक स्तर के नहीं हैं, वरन् उनमें नैतिक स्तर की दृष्टि से एक तारतम्य है जो निम्नतम से उच्चतम नैतिक अवस्था को अभिव्यक्त करता है । मार्टिन्यू के अनुसार वह तारतम्य निम्न है-- १. गौण विकर्षण--अविश्वास, द्वेष, शंकाशीलता । २. गौण जैविक प्रवृत्तियाँ-आराम का प्रेम तथा ऐन्द्रिक सुख । ३. प्राथमिक जैविक प्रवृत्तियाँ--भोजन तथा मैथुन की पशु-प्रवृत्तियाँ । ४. प्राथमिक पाशविक प्रवृत्तियाँ--अनियन्त्रित सक्रियता। ५. लाभ का लोभ--पशु-प्रवृत्ति की उपज । ६. गौण आकर्षण--सहानुभूतिमूलक संवेदनाओं की भावनात्मक वृत्ति । ७. प्राथमिक विकर्षण--घृणो, भय, क्रोध । ८. गौण पाशविक प्रवृत्तियाँ--सत्ता-मोह अथवा महत्त्वाकांक्षा । ९. गौण अभिभावनाएँ-संस्कृति, प्रेम । १०. प्राथमिक भावनाएँ--आश्चर्य तथा प्रशंसा । १५. प्राथमिक आकर्षण--वात्सल्य, सामाजिक मैत्री, उदारता, कृतज्ञता । १२. दया का प्राथमिक आकर्षण । १३. श्रद्धा की प्राथमिक भावना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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