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________________ भारतीय और पाश्चात्य नैतिक मानदण्ड के सिद्धान्त ११५ सहानुभूति वह तत्त्व है जो सद्गुण का मूल्यांकन करता है और जिसके आधार पर किसी कर्म को सद्गुण कहा जाता है । सहानुभूति सद्गुण का साधन और स्रोत दोनों ही है । एडमस्मिथ इस दृष्टिकोण के प्रमुख प्रतिपादक हैं। समकालीन मानवतावादी विचारक भी इस दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं । रसल प्रभृति कुछ विचारक मानव में निहित इसी सहानुभूति के तत्त्व के आधार पर नैतिकता की व्याख्या करते हैं । उनके अनुसार नैतिकता ईश्वरीय आदेश या पारलौकिक जीवन के प्रति प्रलोभन या भय पर निर्भर नहीं है, वरन् मानव की प्रकृति में निहित सहानुभूति के तत्त्व पर निर्भर है। जैन दर्शन से इस दृष्टिकोण की तुलना करने पर हम यह पाते हैं कि जैन विचारकों ने भी मानव में निहित इस सहानुभूति के तत्त्व को स्वीकार किया है। उनके अनुसार तो सभी प्राणियों में परस्पर सहयोग की वृत्ति स्वाभाविक है। लेकिन सहानुभूति का तत्त्व प्राणी-प्रकृति का अंग होते हुए भी सभी में समान रूप से नहीं पाया जाता है। अतः सहानुभूति के आधार पर नैतिकता को पूर्णतया निर्भर नहीं किया जा सकता। (ई) नैतिक अन्तरात्मवाद और जैन दर्शन-नैतिक अन्तरात्मवाद के प्रवर्तक जोसेफ बटलर हैं। इनके अनुसार, सद्गुण वह है जो मानवप्रकृति के अनुरूप हो और दुर्गुण वह है जो मानवप्रकृति के विपरीत हो । दूसरे शब्दों में, सद्गुण मानवप्रकृति के नियमों का अनुवर्तन है और दुर्गुण इन नियमों का उल्लंघन है । मानवप्रकृति से कर्म की संवादिता ही सद्गुण है और कर्म की विसंवादिता दुर्गुण है । लेकिन बटलर इस मानवप्रकृति को मानव की यथार्थ प्रकृति नहीं मानते । यदि हम मानवप्रकृति का अर्थ मानव की यथार्थ प्रकृति करेंगे तो वह जो करता है उस सबको शुभ समझना होगा । अतः हमें यहाँ यह स्पष्ट रूप से जान लेना चाहिए कि बटलर के अनुसार मानवप्रकृति का अर्थ मानव की यथार्थ प्रकृति नहीं, वरन् आदर्श प्रकृति है । मानव की आदर्श प्रकृति के अनुरूप जो कर्म होगा वह शुभ और उसके विपरीत जो कर्म होगा वह अशुभ माना जायेगा । बटलर के इस दृष्टिकोण का समर्थन जैन परम्परा भी करती है । आत्मा की जो विभाव अवस्थाएँ हैं या जो विसंवादी अवस्थाएँ हैं वही अशुभ है और इसके विपरीत आत्म की जो स्वभाव अवस्था या संवादी अवस्था है वह शुभ या शुद्ध अवस्था है। जो कर्म आत्मा को स्वभावदशा की ओर ले जाते हैं वे ही शुभ या शुद्ध कर्म हैं और जो कर्म आत्मा को विभावदशा की ओर ले जाते हैं वे अशुभ हैं । बटलर ने मानवप्रकृति के चार तत्त्व माने हैं-(१) वासना, (२) स्वप्रेम, (३) परहित और (४) अन्तरात्मा । जैन दर्शन के अनुसार मानवप्रकृति के दो ही तत्त्व माने जा सकते हैं-(१) वासना या कषायात्मा और (२) उपयोग या ज्ञानात्मा। बटलर के अनुसार इन सबमें अन्तरात्मा ही नैतिक जीवन का अन्तिम निर्णायक तत्त्व है । बटलर ने इसको प्रशंसा और निन्दा करनेवाली बुद्धि, नैतिक बुद्धि, १. विस्तृत विवेचना एवं प्रमाण के लिए देखिए-नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण, पृ० १३०-१३५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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