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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन हचिसन नैतिक इन्द्रियवाद के दूसरे प्रमुख विचारक हैं। उनके सिद्धान्तों के प्रमुख तथ्य हैं--(१) जन्मजात प्रत्यय, (२) परोपकार-भावना और (३) शान्त प्रेरक । इन्हें उन्होंने आत्मप्रेम, परोपकार और नैतिक इन्द्रिय कहा है। हचिसन के अनुसार शुभ या सद्गुण सुखानुभूति के पूर्ववर्ती हैं और इसी प्रकार परोपकार की भावना वैसी ही स्वाभाविक और सार्वभौमिक है जैसे भौतिक जगत में गुरुत्वाकर्षण का नियम । हचिसन के उपर्युक्त सिद्धान्तों की जैन दर्शन से तुलना करते समय यह कहा जा सकता है कि दोनों के अनुसार नैतिक प्रत्यय जन्मजात हैं, अर्जित नहीं । शुभ और अशुभ का निर्माण हमारी भावनाओं और स्वीकृतियों से नहीं होता, वरन् उनके आधार पर हमारी भावनाएँ बनती हैं। जिस प्रकार हचिसन परोपकार-भावना को स्वाभाविक मानता है, उसी प्रकार जैन दर्शन भी उसे जीव का स्वभाव मानता है। हचिसन ने भावनाओं को दो वर्गों में बाँटा हैं—पहली शान्त और दूसरी अशान्त । शान्त और व्यापक भावनाएँ श्रेयस्कर हैं। हचिसन के इस विचार का समर्थन न केवल जैन दर्शन वरन् अन्य भारतीय दर्शन भी करते हैं।
रस्किन के अनुसार नैतिक इन्द्रिय रसेन्द्रिय है। रसना ही एकमात्र नैतिकता है। पहला और अन्तिम निर्णायक प्रश्न है, 'आप क्या पसन्द करते हैं ? आप जो पसन्द करते हैं मुझे बताएँ और तब मैं बता दूंगा कि आप क्या हैं ।' रस्किन के अनुसार व्यक्ति की रुचि ही उसके नैतिक जीवन का प्रतिमान अभिव्यक्त करती है। रस्किन की रसेन्द्रिय या नैतिक इन्द्रिय की तुलना श्रद्धा से की जा सकती है। जिस प्रकार रस्किन के अनुसार व्यक्ति की रूचि नैतिकता का प्रतिमान है, उसी प्रकार भारतीय दर्शन में श्रद्धा नैतिकता का प्रतिमान है। गीता में कहा गया है कि पुरुष श्रद्धामय है और उसकी जैसी श्रद्धा होती है उसी के अनुरूप वह हो जाता है । २ गीता के इस कथन का रस्किन के रुचि-सिद्धान्त से बहुत कुछ साम्य है। जैन पर म्परा के सम्यग्दर्शन को रस्किन के रुचि सिद्धान्त के तुल्य माना जा सकता है । अन्तर यही है रुचि पर कि जैन परम्परा सम्यग्दर्शन ( भावात्मक श्रद्धा ) पर और रस्किन बल देते हैं। फिर भी दोनों के अनुसार वही नैतिकता का निर्णायक प्रतिमान है, यह महत्त्व की बात है।
रसेन्द्रियवाद या रुचि सिद्धान्त की मूलभूत कमजोरी यह है कि वह शिव और सुन्दर में अन्तर स्थापित नहीं कर पाता । जैन विचारकों ने इस कठिनाई को समझा था और इसीलिए उन्होंने सम्यग्दर्शन को महत्त्वपूर्ण मानते हुए भी उसे सम्यक्चारित्र से अलग किया। यह ठीक है कि रुचि या दृष्टि के आधार पर चारित्र का निर्माण होता है । फिर भी दोनों ही पृथक्-पृथक पक्ष हैं । उनको एक-दूसरे से मिलाने की गलती नहीं करनी चाहिए।
(इ) सहानुभूतिवाद और जैन दर्शन-सहानुभूतिवाद आन्तरिक विधानवाद का एक प्रमुख प्रकार है। इसके अनुसार अन्तर्दृष्टि या प्रज्ञा सहानुभूत्यात्मक है। १. तत्त्वार्थसूत्र, ५।२१. २. गीता, १७१३.
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