________________
भारतीय और पाश्चात्य नैतिक मानदण्ड के सिद्धान्त
१६३ हम देखते हैं कि जैन दर्शन में सैमुअल के चारों ही सिद्धान्तों को मोटे रूप से स्वीकार किया गया है ।
विलियम वुलेस्टन आन्तरिक विधानवाद के सिद्धान्तों में बुद्धिवाद का प्रमुख व्याख्याता है। उसके अनुसार नैतिकता तार्किक सत्य है और अनैतिकता तार्किक मिथ्यात्व है । वुलेस्टन शुभाशुभ की मीमांसा में बुद्धि का महत्त्वपूर्ण स्थान स्वीकार करता है । बुद्धि के द्वारा प्रकाशित शुभ का परित्याग एक प्रकार का आत्मविरोध या आत्मप्रवंचना है । जैन विचारकों ने वुलेस्टन की इस धारणा का समर्थन किया है । धर्म की समीक्षा में बुद्धि का महत्त्वपूर्ण योगदान जैन विचारणा को मान्य है। कहा गया है कि 'साधक को प्रज्ञा के द्वारा ही धर्म की समीक्षा करनी चाहिए। विज्ञान ( विवेकज्ञान ) से ही धर्म के साधनों का निर्णय होता है।''
(आ) नैतिक इन्द्रियवाद और जैन दर्शन-नैतिक इन्द्रियवाद के विचारकों के अनुसार शुभ और अशुभ का बोध बुद्धि के द्वारा नहीं, नैतिक इन्द्रिय के द्वारा होता है । जिस प्रकार हम सून्दर और असुन्दर में भेद करते हैं, ठीक उसी प्रकार शुभ और अशुभ में विवेक करते हैं। मनुष्य का अन्तःकरण ऐसा है जो शुभ और अशुभ में अन्तर स्थापित कर देता है। इस सम्प्रदाय के विचारकों में शेफ्ट्सबरी, हचिसन और जॉन रस्किन प्रमुख हैं । ये सब विचारक इस बात में एकमत हैं कि शुभ और अशुभ का अन्तरात्मा में प्रत्यक्षीकरण होता है । विचार नहीं, वरन् अनुभूति या भाव ही शुभाशुभ का निर्णय करते हैं। शेफ्ट्स बरी ने तीन प्रकार की भावनाएं मानी हैं--(१) अस्वाभाविक या असामाजिक भावनाएँ जिनमें द्वेष, ईर्ष्या एवं निर्दयता आदि हैं, (२) स्वाभाविक या सामाजिक भावनाएं जिनमें दया, परोपकार, वात्सल्य, मैत्री इत्यादि हैं और (३) आत्मभावनाएँ जिनमें आत्मप्रेम, जीवनप्रेम इत्यादि हैं। तुलनात्मक दृष्टि से इन तीनों प्रकार की भावनाओं की तुलना जैन दर्शन के तीन उपयोगों से की जा सकती है। जैन दर्शन के अनुसार निम्न तीन उपयोग हैं-(१) अशुभोपयोग, (२) शुभोपयोग और (३) शुद्धोपयोग । २ अशुभोपयोग असामाजिक या अस्वाभाविक भावना के समकक्ष है। दोनों के अनुसार इसमें द्वेष आदि वृत्तियाँ होती हैं। इसी प्रकार शुभोपयोग स्वाभाविक या सामाजिक भावनाओं के समान है। दोनों ही विचारणाएँ इसमें प्रशस्त रागभाव से युक्त लोककल्याण: को स्वीकार करती हैं । आत्मभावनाओं की तुलना शुद्धोपयोग से की जा सकती है, यद्यपि इस सम्बन्ध में दोनों में अधिक निकटता नहीं है। क्योंकि शेफ्ट्सबरी ने आत्मभावनाओं में स्वार्थ और संग्रहभावना को भी स्थान दिया है। फिर भी किसी अर्थ में शेफ्ट्सबरी और जैन विचारणा में कुछ विचारसाम्य अवश्य परिलक्षित होता है।
१. उत्तराध्ययन, २३३२५; २३।३१. २. जैन एथिक्स, पृ० ७५-७६.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org