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जैन, बौद्ध तथा गोता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
गम्य नहीं, वरन् बुद्धिगम्य हैं । जैन परम्परा राल्फ कडवर्थ के विचारों से इस अर्थ सहमत है कि शुभ और अशुभ अथवा पुण्य या पाप का वस्तुनिष्ठ अस्तित्व है । वह कडवर्थ के साथ इस अर्थ में भी सहमत है कि प्रज्ञा या बुद्धि के द्वारा हम उन्हें जान सकते हैं । यद्यपि जैन दर्शन के अनुसार इसका ज्ञान अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष के द्वारा भी होता है। सैमुअल क्लार्क नैतिक नियमों को गणित के नियमों के समान प्रातिभ एवं प्रामाणिक मानता है । उसके अनुसार, वे वस्तुओं के स्वभाव में निहित हैं अथवा वे वस्तुओं के गुणों और पारस्परिक सम्बन्धों में विद्यमान हैं । उनको हम अपनी बुद्धि से पहचानते हैं । यह हो सकता है कि सभी लोग उनका पालन न करें, फिर भी वे उन्हें बुद्धि के द्वारा जानते अवश्य हैं। सैमुअल क्लार्क के इस विचार की जैन दर्शन से तुलना करने पर ज्ञात होता है कि जैन दार्शनिकों के अनुसार भी धर्म वस्तु के स्वभाव में निहित है । वस्तु का स्वभाव ही धर्म है' और बुद्धि अथवा आन्तरिक प्रत्यक्ष के द्वारा उस स्वभाव को जाना जा सकता है। सैमुअल क्लार्क ने सदाचार के चार सिद्धान्त माने हैं -- ( १ ) ईश्वर भक्ति का सिद्धान्त, (२) समानता का सिद्धान्त, (३) परोपकार का सिद्धान्त और ( ४ ) आत्मसंयम का सिद्धान्त ।
हुआ है । 3 सैमुअल का तीसरा
सैमुअल के अनुसार, ईश्वर भक्ति का सिद्धान्त नित्यता, अनन्तता, सर्वशक्तिमत्ता, न्याय, दया आदि ईश्वरीय गुणों के प्रति निष्ठा है । जैन परम्परा के अनुसार इसकी तुलना सम्यग्दर्शन से की जा सकती है। सैमुअल का समानता का सिद्धान्त यह बताता है कि हर मनुष्य के प्रति हम वही व्यवहार करें जिसकी हम अपने प्रति युक्तियुक्त अशा करते हैं । जैन आगम सूत्रकृतांग में नैतिकता के इस सिद्धान्त की विस्तृत चर्चा है और यह बताया गया है कि जिस व्यवहार की हम अपने प्रति अपेक्षा करते हैं वैसा ही व्यवहार दूसरों के प्रति करना चाहिए । २ बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों में भी इसी सिद्धान्त का समर्थन सिद्धान्त परोपकार का सिद्धान्त है । हमें सभी मनुष्यों के साथ भलाई करना चाहिए | सैमुअल इसके लिए यह प्रमाण देता है कि सार्वजनिक परोपकार या करुणा प्रकृति का नियम है, यह सभी मानवों के पारस्परिक सम्बन्धों की संवादिता है । जैन दर्शन में भी परोपकार के सिद्धान्त को प्राणी की प्रकृति के आधार पर ही स्थापित किया गया है । तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है कि परस्पर एक दूसरे का उपकार करना जीव का स्वभाव है । ४ सैमुअल का चौथा सिद्धान्त आत्मसंयम का सिद्धान्त है जिसके अनुसार प्रत्येक मनुष्य का अपने प्रति भी कुछ कर्तव्य है और वह यह कि अपनी वासनाओं और क्षुधाओं को नियन्त्रित करे । जैन आचारदर्शन में आत्मसंयम वा महत्त्व - पूर्ण स्थान है | समग्र जैन आचारदर्शन के नियम आत्मसयम के लिए हैं । इस प्रकार
१. " वत्थु सहावो धम्मो ” - कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ४७८.
२.
सूत्रकृतांग, २ २ ४.
३.
धम्मपद, १२९ - १३०; सुत्तनिपात, ३७ २७; गीता, ६ ३२.
४. तत्त्वार्थसूत्र, ५१२१.
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