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भारतीय और पाश्चात्य नैतिक मानदण्ड के सिद्धान्त
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युग में वैधानिक नियमों की उत्पत्ति समाजनिरपेक्ष नहीं है, इसलिए सामाजिक विधानवाद और वैधानिक विधानवाद में अन्तर करना उचित न होगा। हाँ, प्राचीन युग में, जबकि राजा ही वैधानिक नियमों का नियामक होता था, वैधानिक विधानवाद नैतिक प्रतिमान का एक महत्त्वपूर्ण अंग था। भोजप्रबन्ध के अनुसार राजा के वचन या विधान से पवित्र आत्मा भी अपवित्र हो जाता है और अपवित्र आत्मा भी पवित्र बन जाता है। राज्य के नियमों का परिपालन जैन आचारदर्शन में भी स्वीकृत है। राज्यनियमों के विरुद्ध काम करने को जैन दार्शनिकों ने अनैतिक कर्म कहा है । श्रमण और गृहस्थ दोनों के लिए ही राजकीय मर्यादाओं का उल्लंघन अनुचित था।२ फिर भी जैन आचारदर्शन के अनुसार राजकीय नियम नैतिकता का प्रतिमान नहीं हो सकते क्योंकि राज्यनियमों का विधान जिन लोगों के द्वारा किया जाता है, वे राग और द्वेष से मुक्त नहीं होते, इसलिए उनके आदेश पूर्णतया प्रामाणिक नहीं कहे जा सकते। राज्य के नियम परिवर्तनशील होते हैं तथा विभिन्न देशों एवं समयों में अलग-अलग होते हैं, जबकि नैतिक प्रतिमान को अपेक्षाकृत स्थायी एवं देशकालगत सीमाओं से ऊपर होना चाहिए।
(इ) ईश्वरीय विधानवाद--ईश्वरीय विधानवाद के अनुसार नैतिकता का वास्तविक आधार ईश्वरीय इच्छा एवं नियम ही हैं। ईश्वरीय नियमों के अनुसार आचरण करना नैतिक है और उसके विरुद्ध आचरण करना अनैतिक । पाश्चात्य परम्परा में देकार्त, लाक, स्पिनोजा आदि अनेक विचारक इस प्रतिमान के समर्थक हैं । समकालीन चिन्तकों में कार्ल बर्थ, इमिल ब्रूनर एवं रिन्होल्डनीबर आदि विचारक इस दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं। 3 ईश्वरीय आज्ञा में नैतिकता के प्रतिमान को खोजने की यह परम्परा भारतीय चिन्तन में भी है। ईश्वरप्रणीत धर्मशास्त्रों की आज्ञा के अनुसार आचरण करना भारतीय आचारदर्शन की प्रमुख मान्यता रही है। धर्मदर्शन के अनुसार तो ईश्वरप्रणीत शास्त्रों की आज्ञाओं का पालन ही नैतिकता का चरम प्रतिमान है।
हिन्दू, बौद्ध और जैन दर्शनों में भी ईश्वर, बुद्ध अथवा तीर्थंकर की आज्ञाओं का पालन करना नैतिक जीवन का अनिवार्य अंग है। गीता का कथन है कि जो शास्त्र के विधान को छोड़कर मनमानी करता है उसे सुख, सफलता और उत्तम गति नहीं मिलती। इसलिए कर्तव्य-अकर्तव्य का निर्णय करने के लिए शास्त्रों को ही प्रमाण मानना चाहिए। शास्त्रोक्त विधान को जानकर उसके अनुसार ही कर्म करना चाहिए।
१. देखिए-नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण, पृ० ९७. २. उपासकदशांग, ११४३. ३. कण्टेम्पररि एथिकल थ्योरीज, पृ० ९८. ४. गीता, १६२३-२४..
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