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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
$ ६. विधानवादी सिद्धान्त
नैतिक प्रतिमान के विधानवादी सिद्धान्त दो प्रकार के हैं-(१) बाह्य विधानवादी सिद्धान्त और (२) आन्तरिक विधानवादी सिद्धान्त । बाह्य विधानवादी सिद्धान्त के भी-(अ) सामाजिक विधानवाद, (आ) वैधानिक विधानवाद और (इ) ईश्वरीय विधानवाद, ये तीन प्रकार हैं । १. बाह्य विधानवादी सिद्धान्त
(अ) सामाजिक विधानवाद-सामाजिक विधानवाद के अनुसार समाज द्वारा स्वीकृत नियमों का पालन करना शुभ और सामाजिक नियमों का पालन न करना या उनका उल्लंघन करना अशुभ है। आधुनिक पाश्चात्य परम्परा में इमाइल डरखिम और ल्यूकिन लेवीबुल इस सिद्धान्त के प्रतिपादक हैं। इस सिद्धान्त की मूलभूत मान्यता यह है कि शुभ और अशुभ के प्रत्ययों, जिन्हें हम नैतिक प्रतिपादन का आधार बनाते हैं, सामाजिक स्वीकृति और अस्वीकृति से निर्मित होते हैं । मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि समाज जिसे उचित मानता है वह उचित है और समाज जिसे अनुचित मानता है वह अनुचित है। इस प्रकार इस सिद्धान्त के अनुसार सामाजिक स्वीकृति या अस्वीकृति ही नैतिकता का प्रतिमान है।
जैन दार्शनिक सामान्यतया सामाजिक नियमों को अस्वीकार नहीं करते। जैन परम्परा में वे सभी लौकिक विधियाँ (सामाजिक नियम ) स्वीकार्य हैं जिनसे सम्यक्त्व और व्रतों में कोई दोष नहीं लगता। जैन परम्परा के अनुसार सामाजिक नियम यदि व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास में बाधक न हों तो उनका पालन करना उचित है, लेकिन यदि वे आध्यात्मिक विकास में बाधक हैं तो वे त्याज्य ही हैं। स्थानांगसूत्र में नगरधर्म, ग्रामधर्म आदि के रूप में लौकिक विधानों को मान्यता प्रदान की गयी है,२ फिर भी उन्हें नैतिकता का प्रतिमान नहीं कहा जा सकता। जैन दार्शनिकों ने व्यावहारिक दृष्टिकोण से ही उनका मूल्य स्वीकार किया है।
गीता में भी कुलधर्म, जाति-मर्यादा आदि के रूप में सामाजिक विधानवाद का समर्थन हुआ है। अर्जुन युद्ध से इसीलिए बचना चाहता है कि उससे कुलधर्म और जातिधर्म के नष्ट होने की सम्भावना दिखाई देती है। भारतीय परम्परा में धर्मअधर्म की व्यवस्था के लिए सामाजिक नियमों एवं परम्पराओं को स्थान अवश्य दिया गया है, फिर भी वे भारतीय दर्शन में नैतिकता के चरम प्रतिमान नहीं हैं।
(आ) वैधानिक विधानवाद-विधानवादी सिद्धान्तों का एक प्रकार यह भी है जिसमें राजकीय नियमों को ही नैतिकता का प्रमापक मान लिया जाता है । आधुनिक
१. “सर्व एवहि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः ।"-यशस्तिलकचम्पू , ८१३४. २. स्थानांगसूत्र, १०. ३. गीता, ११४०-४३.
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