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________________ भारतीय और पाश्चात्य नैतिक मानदण्ड के सिद्धान्त १०३ और असत्यता के सन्दर्भ में विचार करना निरर्थक है । ' इनके अनुसार शुभ और अशुभ, धर्म और अधर्म, अच्छा या बुरा सभी हमारे आन्तरिक मनोभावों की अभिव्यक्तियाँ हैं किसी भी कर्म या वस्तु को अच्छा या शुभ कहने का अर्थ यही है कि उसके कारण हृदय में जो भाव उत्पन्न होता है वह सुखद लगता है । नैतिक प्रत्यय आन्तरिक भावों के उद्गार मात्र हैं । अच्छाई का अर्थ है, सुखद अनुभूति । शुभ और अशुभ मूल्यात्मक निर्णय नहीं हैं, वर्णनात्मक निर्णय हैं। सुखद भाव के अतिरिक्त न कोई अच्छा है और दुःखद भाव के अतिरिक्त न कोई अशुभ या बुरा है । एअर के अनुसार जिन्हें नैतिकता के मौलिक प्रत्यय और परिभाषाएँ कहा जाता है, वे सभी प्रत्याभास ( Pseudo concept ) मात्र हैं क्योंकि जिस वाक्य में वे रहते हैं उसे अपनी ओर से कोई अर्थ प्रदान नहीं करते। प्रत्याभास के रूप में वे मात्र हमारी प्रसन्नता या क्षोभ को प्रकट करते हैं। किसी कर्म को उचित कहकर हम उसके प्रति अपनी प्रसन्नता प्रकट करते हैं और किसी कार्य को अनुचित कहकर हम उसके प्रति अपना क्षोभ प्रकट करते हैं। नैतिक प्रत्ययों का अर्थ हमारे मनोभावों से जुड़ा हुआ है । २ प्रोफेसर कारनेप के अनुसार, “एक मूल्यात्मक कथन वस्तुतः व्याकरण की दृष्टि से छद्मरूप में प्रस्तुत एक आज्ञा से अधिक नहीं है। इसका मानवीय आचरण पर कुछ प्रभाव तो हो सकता है, लेकिन यह प्रभाव हमारी इच्छा या अनिच्छा से ही सम्बन्धित है। यह न तो सत्य हो सकता है और न असत्य ।" 3 'चोरी करना अनुचित है' इस कथन का अर्थ है चोरी मत करो या मुझे चोरी पसन्द नहीं, इस प्रकार इसका कोई सत्य मूल्य नहीं है। इस प्रकार तार्किक भाववादी विचारक 'औचित्य', 'अनौचित्य', 'शुभ', 'अशुभ' एवं 'चाहिए' के नैतिक प्रत्ययों को भावनात्मक अभिव्यक्ति अथवा क्षोभ या पसन्दगी की प्रति क्रिया मात्र मानते हैं और बताते हैं कि ये प्रतिक्रियाएँ भी लोकव्यवहार के अनुसार उत्पन्न होती हैं । इस प्रकार न तो कोई मौलिक नैतिक प्रत्यय है और न नैतिक माने जानेवाले प्रत्ययों का कोई मूल्यात्मक अर्थ ही है। सभी नैतिक प्रत्यय सामाजिक परम्पराओं की सीखी हुई संवेगात्मक अभिव्यक्तियों के ढंग हैं। (आ) नैतिक सन्देहवाद की मनोवैज्ञानिक युक्ति मनोवैज्ञानिक आधार पर नैतिक प्रतिमान के प्रति सन्देहात्मक दृष्टिकोण रखनेवालों में प्रमुख हैं व्यवहारवाद के प्रणेता वाट्सन और मनोविश्लेषण सम्प्रदाय के प्रवर्तक फ्रायड । वाट्सन की दृष्टि में मानवीय व्यवहार यान्त्रिक एवं अन्ध है। वे अपने अध्ययन को व्यवहार के बाह्य प्रकट स्वरूप तक ही सीमित रखते हैं, यदि उनके लिए नैतिकता का कोई स्थान हो सकता है, तो वह इसी बाह्य यान्त्रिक एवं अन्ध १. कण्टेम्पररि एथिकल थ्योरीज, पृ० ११. २. देखिए- लैंग्वेज, लाजिक ऐण्ड टूथ, पृ० १०८-९. ३. उद्धृत-लैंग्वेज आफ मारल्स, पृ० १२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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