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१०२ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन स्वीकार किया,ले किन वह नैतिक प्रतिमान क्या है, इस विषय में उनमें काफी मतभेद है। पाश्चात्य विचारकों के द्वारा विभिन्न नैतिक प्रतिमानों की स्थापना की गयी
और फलस्वरूप आचार दर्शन के विभिन्न सिद्धान्तों का निर्माण हुआ। उन सबका विस्तृत एवं गहन चिन्तन तो यहाँ सम्भव नहीं है, फिर भी उन विभिन्न धारणाओं के साथ जैन एवं अन्य दर्शन का क्या सम्बन्ध हो सकता है, इसपर संक्षिप्त विचार करना उचित होगा। सर्वप्रथम 'नतिक सन्देहवाद' को ही लें।
३. नैतिक सन्देहवाद और जैन आचारदर्शन . नैतिक सन्देहवाद की विचारधारा भारत और पाश्चात्य देशों में प्राचीन समय से चली आ रही है। भारत के चार्वाक दार्शनिक और ग्रीस के सोफिस्ट विचारक इस विचार-परम्परा का प्रतिनिधित्व करते हैं। भारतीय परम्परा में नैतिक सन्देहवाद सम्बन्धी विचार प्रचलित थे, ऐसे सन्दर्भ जैन, बौद्ध और वैदिक ग्रन्थों में उपलब्ध हैं।
जैन आचार्यों ने सूत्रकृतांग एवं त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में इस विचारधारा का उल्लेख किया है। इस विचारधारा के अनुसार धर्म ( उचित ) और अधर्म ( अनुचित ) की शंका में नहीं पड़ना चाहिए, क्योंकि यह सुखों की उपलब्धि में बाधक है, गधे की सींग के समान धर्म और अधर्म का कोई अस्तित्व ही नहीं है। महाभारत में भी यक्ष के प्रश्नों के उत्तर में युधिष्ठिर ने यही कहा था कि तर्क के द्वारा धर्माधर्म का निर्णय करना सम्भव नहीं है श्रुति भी इस विषय में एकमत नहीं है। ऋषियों के कथन भी परस्पर विरोधी हैं, अतः उनके वचनों को भी प्रमाण नहीं माना जा सकता। महावीर और बुद्ध के समकालीन अज्ञानवादी विचारक संजय वेलट्टिपुत्त इसी नैतिक सन्देहवाद का प्रतिनिधित्व करते थे । नैतिक सन्देहवाद मूलरूप में यह मानकर चलता है कि किसी भी ऐसे नैतिक प्रतिमान को खोज पाना असम्भव है जिसे धर्माधर्म या उचित-अनुचित के निर्णय का प्रामाणिक आधार बनाया जा सके ।
पाश्चात्य आचारदर्शन में नैतिक सन्देहवाद की धारणा तार्किक आधारों पर पुष्ट हुई है। नैतिक सन्देहवादी पाश्चात्य विचारक इस सम्बन्ध में तो एकमत हैं कि वे नैतिक मानक के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते हैं, लेकिन नैतिक मानक को अस्वीकार करने के उनके तर्क अलग-अलग हैं । उनके तीन वर्ग हैं । (अ) नैतिक सन्देहवाद की अर्थवैज्ञानिक युक्ति और ताकिक भाववाद
तार्किक भाववाद को माननेवाले विचारकों में कारनेप, रसल एवं एअर प्रमुख हैं । ये नैतिक आदेश एवं नैतिक प्रत्ययों के भाषाविषयक विवेचन के आधार पर यह सिद्ध करते हैं कि नैतिक प्रत्यय मात्र सांवेगिक अभिव्यक्तियाँ हैं और इनकी सत्यता
१. (अ) सूत्रकृतांग, १।१।१।११-१२. (ब) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, १।३३४. - २. महाभारत, वनपर्व, ३१२।११५.
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