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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
व्यवहार में ही हो सकता है । लेकिन प्रयोजन, लक्ष्य अथवा चेतन उद्देश्यों से रहित व्यवहार में नैतिकता को स्वीकार करना हास्यास्पद होगा, क्योंकि फिर तो हवा का बहना और पानी का गिरना भी नैतिकता की सीमा में आ जायेगा । यदि वाट्सन की दृष्टि में मानवीय व्यवहार यान्त्रिक एवं अन्ध है तो फिर उसमें नैतिकता का कोई स्थान नहीं हो सकता । उसमें नैतिकता मात्र भ्रम होगी । "
फ्रायड की दृष्टि में मानवीय व्यवहार जैविक वासनाओं से नियन्त्रित होता है । मानवीय प्रकृति ऐसी ही है तो उसके लिए किसी नैतिक सिद्धान्त की स्थापना ही सम्भव नहीं है । फ्रायड के अनुसार मनुष्य मूलप्रवृत्यात्मक वासनाओं का समूह हैऔर वासनाओंके विरुद्ध किसी नैतिक सिद्धान्त की स्थापना का तर्क निरर्थक है । फ्रायड की मान्यता में नैतिक आदर्शों की उपलब्धि असम्भव है । वे आदर्श थोथे हैं और मानवीय अयौक्तिक वासनाओं के चिरकालीन दमन के प्रपंचित प्रक्षेपण हैं, जो उपलब्धि के योग्य ही नहीं हैं। इस प्रकार फ्रायड के मनोविज्ञान में नैतिकता का कोई स्थान नहीं रहता ।
(इ) नैतिक सन्देहवाद की समाजशास्त्रीय युक्ति
कुछ समाजशास्त्रीय विचारक भी नैतिकता के निरपेक्ष, स्थायी एवं सार्वभौमिक प्रतिमान के अस्तित्व के प्रति सन्देह प्रकट करते हैं । विलियम ग्राहम समनेर कहते हैं कि नैतिक मान्यताएँ अथवा उचित और अनुचित की धारणा समाज सापेक्ष है । जो भी तत्कालीन सामाजिक रीतिरिवाजों के अनुकूल होता है वह उचित, और जो प्रतिकूल है वह अनुचित है । उनके अनुसार यह रीतिरिवाज निर्णय नहीं वरन् विकास है ( जो विकास पर आधारित है वह निरपेक्ष नहीं ) । अतः नैतिकता के सन्दर्भ में निरपेक्षता का विचार व्यर्थ है । वह तो रीतिरिवाजों से प्रत्युत्पन्न है और कभी भी मौलिक और रचनात्मक नहीं हो सकती । तात्पर्य यह है कि निरपेक्ष अर्थ में नैतिक प्रत्ययों का अस्तित्व भ्रम हैं । एक स्वीकारात्मक नैतिक सिद्धान्त ( सामूहिक ) इच्छा की अभिव्यक्ति से अधिक नहीं है । 3 दूसरे समाजशास्त्रीय विचारक कार्ल मनहीयम कहते हैं कि ऐसा कोई ( नैतिक ) आदर्श नहीं हो सकता जो मात्र आकारिक एवं निरपेक्ष हो । रीतिरिवाज नैतिकता की भावनात्मक प्रकृति में समाविष्ट है और फिर ऐसी दशा में नैतिक निर्णयों के लिए स्थिर मूल्यों को खोज पाना असम्भव है ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि पूर्व और पश्चिम के ये सब विचारक कम से कम इस एक बात पर सहमत हैं कि नैतिकता की धारणा का कोई अस्तित्व नहीं है और उसके सन्दर्भ में विचार करना निरर्थक है ।
१. कण्टेम्परर एथिकल थ्योरीज, पृ० ३३.
२. वही, पृ० ३७-३८, ४०. ३. वही, पृ० ५९. ४. वही, पृ० ५३.
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