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________________ गीता के त्रिगुण सिद्धान्त से तुलना की गई है । अन्तिम उन्नीसवें अध्याय में जैन आचार का प्राचीन एवं अर्वाचीन संदर्भो में मूल्यांकन किया गया है । कृतज्ञताज्ञापन प्रस्तुत गवेषणा में जिन महापुरुषों, विचारकों, लेखकों, गुरुजनों एवं मित्रों का सहयोग रहा है उन सबके प्रति आभार प्रदर्शित करना मैं अपना पुनीत कर्तव्य समझता हूँ। कृष्ण, बुद्ध और महावीर एवं अनेकानेक ऋषि-महर्षियों के उपदेशों की यह पवित्र धरोहर, जिसे उन्होंने अपनी प्रज्ञा एवं साधना के द्वारा प्राप्त कर मानव-कल्याण के लिए जन-जन में प्रसारित किया था, आज भी हमारे लिए मार्गदर्शक है और हम उनके प्रति श्रद्धावनत् हैं। लेकिन महापुरुषों के ये उपदेश, आज देववाणी संस्कृत, पालि एवं प्राकृत में जिस रूप में हमें संकलित मिलते हैं, हम इनके संकलनकर्ताओं के प्रति आभारी हैं, जिनके परिश्रम के फलस्वरूप वह पवित्र थाती सुरक्षित रहकर आज हमें उपलब्ध हो सकी है । ____ सम्प्रति युग के उन प्रबुद्ध विचारकों के प्रति भी आभार प्रकट करना आवश्यक है जिन्होंने बुद्ध, महावीर और कृष्ण के मन्तव्यों को युगीन सन्दर्भ में विस्तारपूर्वक विवेचित एवं विश्लेषित किया है। इस रूप में जैन दर्शन के मर्मज्ञ पं० सुखलालजी, उपाध्याय अमरमुनि जी, मुनि नथमलजी, प्रो० दलसुखभाई मालवणिया, बौद्ध दर्शन के अधिकारी विद्वान् धर्मानन्द कौसम्बी एवं अन्य अनेक विद्वानों एवं लेखकों का भी मैं आभारी हूँ, जिनके साहित्य ने मेरे चिन्तन को दिशा-निर्देश दिया है । ___ मैं जैन दर्शन पर शोध करने वाले डॉ० टाटिया, डॉ० इन्द्रचन्द्र शास्त्री, डॉ० पद्म राजे, डॉ. मोहनलाल मेहता, डॉ० कलघटगी, डॉ. कमल चन्द सोगानी एवं डॉ. दयानन्द भार्गव आदि उन सभी विद्वानों का भी आभारी हैं, जिनके शोध ग्रन्थों ने मुझे न केवल विषय और शैली के समझने में मार्गदर्शन दिया वरन् जैन ग्रन्थों के अनेक महत्त्वपूर्ण सन्दर्भो को बिना प्रयास के मेरे लिए उपलब्ध भी कराया है। इन सबके अतिरिक्त में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के उन लेखकों के प्रति भी आभारी हूँ, जिनके विचारों से प्रस्तुत गवेषणा में लाभान्वित हुआ हूँ। उन गुरुजनों के प्रति, जिनके व्यक्तिगत स्नेह, प्रोत्साहन एवं मार्गदर्शन ने मझे इस कार्य में सहयोग दिया है, श्रद्धा प्रकट करना भी मेरा अनिवार्य कर्तव्य है। सर्वप्रथम मैं सौहार्द्र, सौजन्य एवं संयम की मूर्ति श्रद्धेय गुरुवर्य डॉ० सी० पी० ब्रह्मों का अत्यन्त ही आभारी हूँ। अपने स्वास्थ्य की चिन्ता नहीं करते हुए भी उन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थ के अनेक अंशों को ध्यानपूर्वक पढ़ा या सुना एवं यथावसर उसमें सुधार एवं संशोधन के लिए निर्देश भी किया। मैं नहीं समझता हूँ कि केवल शाब्दिक आभार प्रकट करने मात्र से मैं उनके प्रति अपने दायित्व से उऋण हो सकता हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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