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स्थान तथा मनोनिग्रह के प्रत्यय की जैन, बौद्ध और गोता और पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों की दृष्टि से समीक्षा की गई है । अठारहवें अध्याय में मनोवृत्तियों के रूप में कषाय एवं लेश्या सिद्धान्त की विवेचना एवं बौद्ध दर्शन तथा पाश्चात्य दार्शनिक 'रास' के विचारों से उसकी तुलना की गई है ।
ग्रन्थ का दूसरा भाग व्यावहारिक पक्ष से सम्बन्धित है और अलग जिल्द में प्रकाशित हुआ है । इसके साधना - मार्ग खण्ड में एक से आठ तक आठ अध्याय हैं । प्रथम अध्याय में जैन नैतिक साधना के केन्द्रीय सिद्धान्त समत्वयोग की विवेचना तथा बौद्ध दर्शन और गीता से उसकी तुलना की गई है । दूसरे अध्याय में मानवीय चेतना के ज्ञानात्मक, अनुभूत्यात्मक एवं संकल्पात्मक पक्षों के आधार पर त्रिविध साधना पथ की आवश्यकता का प्रतिपादन करते हुए दर्शन (श्रद्धा), ज्ञान एवं चारित्र के पारस्परिक सम्बन्धों को स्पष्ट किया गया है । तीसरे अध्याय में मिथ्यात्व (अविद्या) के स्वरूप की विवेचना की गई है । चौथे से सातवें अध्याय तक क्रमशः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक्-तप एवं योग मार्ग का विवेचन किया गया है । आठवें अध्याय में निवृत्ति और प्रवृत्ति की समस्या पर उसके विभिन्न पहलुओं सहित विवेचन किया गया है । इस सभी अध्यायों में जैन दृष्टिकोण की बौद्ध एवं गीता के आचारदर्शनों से तुलना की गई है ।
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प्रश्न पर तथा ग्यारहवें अध्याय अध्याय में स्वधर्म के सम्बन्ध में
सामाजिक नैतिकता खण्ड के सम्बन्ध में नौ से अध्याय में भारतीय दर्शन में सामाजिक चेतना के गया है । दसवें अध्याय में स्वहित और लोकहित में वर्ण-व्यवस्था और आश्रम - सिद्धान्त पर तथा बारहवें भी विचार किया गया है । तेरहवें अध्याय में सामाजिक नैतिकता के तीन केन्द्रीय सिद्धान्त अहिंसा, अनाग्रह और अनासक्ति की चर्चा की गई है । चौदहवें अध्याय में सामाजिक धर्म एवं दायित्व पर प्रकाश डाला गया है तथा इस सम्बन्ध में जैन, बौद्ध और वैदिक परम्परा के विचारों को स्पष्ट किया गया है |
और बौद्ध एवं
व्यावहारिक नैतिक नियम खण्ड में पाँच अध्याय हैं, जिनकी क्रम संख्या पन्द्रह से उन्नीस तक है । पन्द्रहवें अध्याय में गृहस्थ धर्म के नियमों का सविस्तार विवेचन करते हुए जैन विचार की बौद्ध, वैदिक एवं गांधी के विचारों से तुलना भी की गई है । सोलहवें अध्याय में जैन मुनि के आचार-विचार का विवेचन किया गया है वैदिक परम्पराओं में प्रतिपादित मुनियों के आचार-विचार से है । सत्रहवें अध्याय में जैन आचार के सामान्य नियमों की चर्चा की गई है । साथ ही उन नियमों की बौद्ध धर्म और हिन्दू धर्म के आचार नियमों से तुलना की गई है । अठारहवें अध्याय में आध्यात्मिक ओर नैतिक विकास की चर्चा की गई है और इस सम्बन्ध में जैन परम्परा के गुणस्थान सिद्धान्त की बौद्ध परम्परा की विकासात्मक भूमियों और
उसकी तुलना की गई
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चौदह तक चार अध्याय हैं । नवें विकास के स्वरूप को स्पष्ट किया
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