SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 139
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९४ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन जेम्स सैथ कहते हैं कि 'संकल्प का कार्य सृष्टि करना नहीं, वरन् निर्देशन और नियन्त्रण करना है। इस प्रकार हम देखते हैं कि पाश्चात्य विचारणा का संकल्प जैन और बौद्ध विचारणा के दृष्टि ( दर्शन ) शब्द के निकट आ जाता है, क्योंकि जैन एवं बौद्ध विचारणाओं में दृष्टि ही चरित्र का नियामक एवं निर्देशक तत्त्व है। जैन तथा बौद्ध विचारणाओं में दृष्टि को उतना ही महत्त्व प्राप्त है, जितना कांट की विचारणा में संकल्प को। कांट के संकल्प के समान दृष्टि भी शुभाशुभता का अन्तिम मापक है। इतना ही नहीं, दोनों ही अपने आप में आकारिक हैं। मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि अपने आप में अन्तर्वस्तु नहीं, वरन् वे आकार हैं जिनके आधार पर अन्तर्वस्तु का मूल्य बनता है। जिस प्रकार कांट के नीतिशास्त्र में संकल्प नैतिकता का केन्द्रीय तत्त्व है, उसी प्रकार जैन और बौद्ध विचारणा में सम्यग्दष्टि या मिथ्यादष्टि नैतिकता का केन्द्रीय तत्त्व है। $ १०. चारित्र और नैतिक निर्णय जैन विचारणा मैकेंजी के साथ सहमत होकर यह भी मानती है कि व्यक्ति का चारित्र भी नैतिक निर्णय का विषय है। मान लीजिए, किसी व्यक्ति के पास एक भरी हुई बन्दूक है । किसी प्रकार की असावधानी से वह चल जाती है और किसी व्यक्ति की हत्या हो जाती है। इस प्रसंग पर सम्भवतः कांट कहेंगे कि उसका संकल्प हत्या करने का नहीं था, अतः वह दोषी नहीं है। मिल भी कहेंगे कि उसका हत्या करने का कोई प्रयोजन नहीं था, अत: वह दोषी नहीं है। मार्टिन्यू का प्रेरक भी वहाँ अप्रभावशाली है, अत: उसके अनुसार भी वह दोषी नहीं होगा। लेकिन जैन विचारणा और मैकेंजी उसे दोषी मानेंगे। जैन विचारणा कहेगी कि वह व्यक्ति दो आधारों पर दोषी है (१) असावधानी ( प्रमाद ) तथा (२) अविरति । पहले तो उसे हिंसक शस्त्र का संग्रह ही नहीं करना था और यदि किया भी था तो सावधान रहना चाहिए था। जैन विचारणा के अनुसार, चारित्र के भावात्मक और निषेधात्मक ऐसे दो पक्ष हैं । भावात्मक दृष्टि में वह जाग्रति या अप्रमत्तता है और निषेधात्मक दृष्टि में वह विरति ( संयम ) है। नैतिक जीवन एक अनुशासित जीवन है । संयम और अप्रमाद ( अनालस्य ) अनुशासित जीवन का आधार है। अतः साधक जब भी इनसे दूर होता है, बन्धन की दिशा में बढ़ जाता है। जैन विचारणा तो यहाँ तक कहती है कि यदि साधक असावधान है, प्रमत्त है, तो फिर बाह्य रूप में हिंसा न करते हुए भी वह हिंसा का दोषी है । * यदि हिंसा या चोरी नहीं करने के दृढ़ संकल्प के द्वारा वह उन कार्यों से विरत नहीं होता है तो भी वह हिंसा या चोरी का भागी है। ___इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन विचारणा में नैतिक निर्णय के विषय को लेकर जो विभिन्न दृष्टिकोण हैं, उन सभी का महत्त्व स्वीकार किया गया है । यद्यपि जैन विचारक न केवल उन्हें स्वीकार करते हैं, वरन् अपनी अनेकान्तवादी दृष्टि के आधार पर उनमें समन्वय भी करते हैं। उनकी दृष्टि में कर्म के इन विभिन्न पक्षों पर समवेत रूप से विचार करके ही नैतिक निर्णय देना सम्भव है। १. ए स्टडी आफ एथिकल प्रिन्सपुल्स (सेथ), पृ० ४४. २. ओघनियुक्ति, ७५४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy