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नैतिक निर्णय का स्वरूप एवं विषय
मिल की गलती यह नहीं थी कि उसने प्रयोजन को नैतिक निर्णय का विषय माना, उसकी वास्तविक गलती यह थी कि उसने 'प्रयोजन' और 'प्रेरक' के मध्य एक खाई खोदना चाहा, लेकिन प्रयोजनों के निश्चय में प्रेरक का महत्त्वपूर्ण भाग होता है, जिसे भुलाया नहीं जा सकता । मिल प्रयोजन को प्रेरक से अलग कर अपने सिद्धान्त में एकiगिता ला देता है । लेकिन जैन विचारकों ने परिणाम को अध्यवसाय का समानार्थक मानकर उसे अर्थ-विस्तार दिया है इससे वे अपने को एकांगिता के दोष से बचा पाये ।
८. अभिप्रेरक और जैन दृष्टि
भारतीय चिन्तन में अभिप्रेरक केवल सुख-दुःख का निष्क्रिय भाव नहीं, वरन् राग और द्वेष का सक्रिय तत्त्व है, जो अपने विभिन्न रूपों में नैतिक निर्णय का महत्त्वपूर्ण विषय है। गीता में रजोगुणजनित लोभ, काम और क्रोध को अभिप्रेरक के रूप में स्वीकार किया गया है ।" बौद्ध दर्शन में कर्मों की उत्पत्ति के तीन हेतु (अभिप्रेरक) माने गये हैं (१) लोभ, (२) द्वेष, और (३) मोह | छन्द (इच्छा) को भी अभिप्रेरक के रूप में स्वीकार किया गया है। 3 जैन दर्शन में राग-द्वेष को कर्म का अभिप्रेरक माना गया है । अपेक्षाभेद से क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों को भी अभिप्रेरक कहा गया है । वास्तव में इन सबके मूल में आसक्ति, तृष्णा या राग ही है और भारतीय आचारदर्शनों के अनुसार यही नैतिक निर्णय के प्रमुख तत्त्व हैं ।
गीता के अनुसार 'आसक्ति', बौद्ध दर्शन के अनुसार 'तृष्णा' और जैन दर्शन के 'अनुसार 'राग' ही एक ऐसा तत्त्व है जिसके आधार पर शुभ और अशुभ का निर्णय किया जा सकता है ।
१९. संकल्प और जैन दृष्टि
जैन विचारणा में परिणाम और इच्छा में कोई अन्तर स्थापित किया हो, ऐसा हमारी जानकारी में नहीं है; बल्कि आचार्य कुन्दकुन्द ने तो समयसार में उन्हें पर्याय ही मान लिया है । लेकिन उन्होंने नियमसार में बन्धनकारी और अबन्धनकारी कर्म के सम्बन्ध में विचार करते हुए परिणाम और ईहा के आधार पर अलग-अलग विचार किया है । इससे यह फलित हो सकता है कि आचार्य की दृष्टि में परिणाम और ईहा में कुछ अन्तर अवश्य ही रहा होगा । ' ईहा ' शब्द का अर्थ इच्छा होता है और जैन विचारकों की दृष्टि में यह इच्छा भी नैतिक निर्णय का महत्त्वपूर्ण विषय है । नियमसार से स्पष्ट है कि इच्छापूर्वक किया वचन आदि कर्म ही बन्धन का कारण है, लेकिन इच्छारहित किया हुआ वचन आदि कर्म बन्धन का कारण नहीं है । 4
१. गीता, १४/१२; ३ ३७. २. अंगुत्तरनिकाय, ३ १०७.
३. वही, ३ १०९.
४.
उत्तराध्ययन ३२ ७. ५. नियमसार, १७१.
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